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On this episode of Advances in Care , host Erin Welsh and Dr. Craig Smith, Chair of the Department of Surgery and Surgeon-in-Chief at NewYork-Presbyterian and Columbia discuss the highlights of Dr. Smith’s 40+ year career as a cardiac surgeon and how the culture of Columbia has been a catalyst for innovation in cardiac care. Dr. Smith describes the excitement of helping to pioneer the institution’s heart transplant program in the 1980s, when it was just one of only three hospitals in the country practicing heart transplantation. Dr. Smith also explains how a unique collaboration with Columbia’s cardiology team led to the first of several groundbreaking trials, called PARTNER (Placement of AoRTic TraNscatheteR Valve), which paved the way for a monumental treatment for aortic stenosis — the most common heart valve disease that is lethal if left untreated. During the trial, Dr. Smith worked closely with Dr. Martin B. Leon, Professor of Medicine at Columbia University Irving Medical Center and Chief Innovation Officer and the Director of the Cardiovascular Data Science Center for the Division of Cardiology. Their findings elevated TAVR, or transcatheter aortic valve replacement, to eventually become the gold-standard for aortic stenosis patients at all levels of illness severity and surgical risk. Today, an experienced team of specialists at Columbia treat TAVR patients with a combination of advancements including advanced replacement valve materials, three-dimensional and ECG imaging, and a personalized approach to cardiac care. Finally, Dr. Smith shares his thoughts on new frontiers of cardiac surgery, like the challenge of repairing the mitral and tricuspid valves, and the promising application of robotic surgery for complex, high-risk operations. He reflects on life after he retires from operating, and shares his observations of how NewYork-Presbyterian and Columbia have evolved in the decades since he began his residency. For more information visit nyp.org/Advances…
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सिंहासन बत्तीसी (संस्कृत:सिंहासन द्वात्रिंशिका, विक्रमचरित) एक लोककथा संग्रह है। प्रजा से प्रेम करने वाले,न्याय प्रिय, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। उनके इन अद्भुत गुणों का बखान करती अनेक कथाएं हम बचपन से ही पढ़ते आए हैं। सिंहासन बत्तीसी भी ऐसी ही ३२ कथाओं का संग्रह है जिसमें ३२ पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कहानी के रूप में वर्णन करती हैं।
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सिंहासन बत्तीसी (संस्कृत:सिंहासन द्वात्रिंशिका, विक्रमचरित) एक लोककथा संग्रह है। प्रजा से प्रेम करने वाले,न्याय प्रिय, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। उनके इन अद्भुत गुणों का बखान करती अनेक कथाएं हम बचपन से ही पढ़ते आए हैं। सिंहासन बत्तीसी भी ऐसी ही ३२ कथाओं का संग्रह है जिसमें ३२ पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कहानी के रूप में वर्णन करती हैं।
रानी रुपवती बत्तीसवीं पुतली रानी रुपवती ने राजा भोज को सिंहासन पर बैठने की कोई रुचि नहीं दिखाते देखा तो उसे अचरज हुआ। उसने जानना चाहा कि राजा भोज में आज पहले वाली व्यग्रता क्यों नहीं है। राजा भोज ने कहा कि राजा विक्रमादित्य के देवताओं वाले गुणों की कथाएँ सुनकर उन्हें ऐसा लगा कि इतनी विशेषताएँ एक मनुष्य में असम्भव हैं और मानते हैं कि उनमें बहुत सारी कमियाँ है। अत: उन्होंने सोचा है कि सिंहासन को फिर वैसे ही उस स्थान पर गड़वा देंगे जहाँ से इसे निकाला गया है। राजा भोज का इतना बोलना था कि सारी पुतलियाँ अपनी रानी के पास आ गईं। उन्होंने हर्षित होकर राजा भोज को उनके निर्णय के लिए धन्यवाद दिया। पुतलियों ने उन्हें बताया कि आज से वे भी मुक्त हो गईं। आज से यह सिंहासन बिना पुतलियों का हो जाएगा। उन्होंने राजा भोज को विक्रमादित्य के गुणों का आंशिक स्वामी होना बतलाया तथा कहा कि इसी योग्यता के चलते उन्हें इस सिंहासन के दर्शन हो पाये। उन्होंने यह भी बताया कि आज से इस सिंहासन की आभा कम पड़ जाएगी और धरती की सारी चीजों की तरह इसे भी पुराना पड़कर नष्ट होने की प्रक्रिया से गुज़रना होगा। इतना कहकर उन पुतलियों ने राजा से विदा ली और आकाश की ओर उड़ गईं। पलक झपकते ही सारी की सारी पुतलियाँ आकाश में विलीन हो गई। पुतलियों के जाने के बाद राजा भोज ने कर्मचारियों को बुलवाया तथा गड्ढा खुदवाने का निर्देश दिया। जब मजदूर बुलवाकर गड़ढा खोद डाला गया तो वेद मन्त्रों का पाठ करवाकर पूरी प्रजा की उपस्थिति में सिंहासन को गड्ढे में दबवा दिया। मिट्टी डालकर फिर वैसा ही टीला निर्मित करवाया गया जिस पर बैठकर चरवाहा अपने फैसले देता था। लेकिन नया टीला वह चमत्कार नहीं दिखा सका जो पुराने वाले टीले में था। उपसंहार- कुछ भिन्नताओं के साथ हर लोकप्रिय संस्करण में उपसंहार के रुप में एक कथा और मिलती है। उसमें सिंहासन के साथ पुन: दबवाने के बाद क्या गुज़रा- यह वर्णित है। आधिकारिक संस्कृत संस्करण में यह उपसंहार रुपी कथा नहीं भी मिल सकती है, मगर जन साधारण में काफी प्रचलित है। कई साल बीत गए। वह टीला इतना प्रसिद्ध हो चुका था कि सुदूर जगहों से लोग उसे देखने आते थे। सभी को पता था कि इस टीले के नीचे अलौकिक गुणों वाला सिंहासन दबा पड़ा है। एक दिन चोरों के एक गिरोह ने फैसला किया कि उस सिंहासन को निकालकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर बेच देना चाहते थे। उन्होंने टीले से मीलों पहले एक गड्ढा खोदा और कई महीनों की मेहनत के बाद सुरंग खोदकर उस सिंहासन तक पहुँचे। सिंहासन को सुरंग से बाहर लाकर एक निर्जन स्थान पर उन्होंने हथौड़ों के प्रहार से उसे तोड़ना चाहा। चोट पड़ते ही ऐसी भयानक चिंगारी निकलती थी कि तोड़ने वाले को जलाने लगती थी। सिंहासन में इतने सारे बहुमूल्य रत्न-माणिक्य जड़े हुए थे कि चोर उन्हें सिंहासन से अलग करने का मोह नहीं त्याग रहे थे। सिंहासन पूरी तरह सोने से निर्मित था, इसलिए चोरों को लगता था कि सारा सोना बेच देने पर भी कई हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ मिल जाएगीं और उनके पास इतना अधिक धन जमा हो जाएगा कि उनके परिवार में कई पुरखों तक किसी को कुछ करने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी। वे सारा दिन प्रयास करते रहे मगर उनके प्रहारों से सिंहासन को रत्ती भर भी क्षति नहीं पहुँची। उल्टे उनके हाथ चिंगारियों से झुलस गए और चिंगारियों को बार-बार देखने से उनकी आँखें दुखने लगीं। वे थककर बैठ गए और सोचते-सोचते इस नतीजे पर पहुँचे कि सिंहासन भुतहा है। भुतहा होने के कारण ही राजा भोज ने इसे अपने उपयोग के लिए नहीं रखा। महल में इसे रखकर ज़रुर ही उन्हें कुछ परेशानी हुई होगी, तभी उन्होंने ऐसे मूल्यवान सिंहासन को दुबारा ज़मीन में दबवा दिया। वे इसका मोह राजा भोज की तरह ही त्यागने की सोच रहे थे। तभी उनका मुखिया बोला कि सिंहासन को तोड़ा नहीं जा सकता, पर उसे इसी अवस्था में उठाकर दूसरी जगह ले जाया जा सकता है। चोरों ने उस सिंहासन को अच्छी तरह कपड़े में लपेट दिया और उस स्थान से बहुत दूर किसी अन्य राज्य में उसे उसी रुप में ले जाने का फैसला कर लिया। वे सिंहासन को लेकर कुछ महीनों की यात्रा के बाद दक्षिण के एक राज्य में पहुँचे। वहाँ किसी को उस सिंहासन के बारे में कुछ पता नहीं था। उन्होंने जौहरियों का वेश धरकर उस राज्य के राजा से मिलने की तैयारी की। उन्होंने राजा को वह रत्न जड़ित स्वर्ण सिंहासन दिखाते हुए कहा कि वे बहुत दूर के रहने वाले हैं तथा उन्होंने अपना सारा धन लगाकर यह सिंहासन तैयार करवाया है। राजा ने उस सिंहासन की शुद्धता की जाँच अपने राज्य के बड़े-बड़े सुनारों और जौहरियों से करवाई। सबने उस सिंहासन की सुन्दरता और शुद्धता की तारीफ करते हुए राजा को वह सिंहासन खरीद लेने की सलाह दी। राजा ने चोरों को उसका मुँहमाँगा मूल्य दिया और सिंहासन अपने बैठने के लिए ले लिया। जब वह सिंहासन दरबार में लगाया गया तो सारा दरबार अलौकिक रोशनी से जगमगाने लगा। उसमें जड़े हीरों और माणिक्यों से बड़ी मनमोहक आभा निकल रहीं थी। राजा का मन भी ऐसे सिंहासन को देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। शुभ मुहू देखकर राजा ने सिंहासन की पूजा विद्वान पंडितों से करवाई और उस सिंहासन पर नित्य बैठने लगा। सिंहासन की चर्चा दूर-दूर तक फैलने लगी। बहुत दूर-दूर से राजा उस सिंहासन को देखने के लिए आने लगे। सभी आने वाले उस राजा के भाग्य को धन्य कहते, क्योंकि उसे ऐसा अद्भुत सिंहासन पर बैठने का अवसर मिला था। धीरे-धीरे यह प्रसिद्धि राजा भोज के राज्य तक भी पहुँची। सिंहासन का वर्णन सुनकर उनको लगा कि कहीं विक्रमादित्य का सिंहासन न हो। उन्होंने तत्काल अपने कर्मचारियों को बुलाकर विचार-विमर्श किया और मज़दूर बुलवाकर टीले को फिर से खुदवाया। खुदवाने पर उनकी शंका सत्य निकली और सुरंग देखकर उन्हें पता चल गया कि चोरों ने वह सिंहासन चुरा लिया। अब उन्हें यह आश्चर्य हुआ कि वह राजा विक्रमादित्य के सिंहासन पर आरुढ़ कैसे हो गया। क्या वह राजा सचमुच विक्रमादित्य के समकक्ष गुणों वाला है? उन्होंने कुछ कर्मचारियों को लेकर उस राज्य जाकर सब कुछ देखने का फैसला किया। काफी दिनों की यात्रा के बाद वहाँ पहुँचे तो उस राजा से मिलने उसके दरबार पहुँचे। उस राजा ने उनका पूरा सत्कार किया तथा उनके आने का प्रयोजन पूछा। राजा भोज ने उस सिंहासन के बारे में राजा को सब कुछ बताया। उस राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि उसे सिंहासन पर बैठने में कभी कोई परेशानी नहीं हुई। राजा भोज ने ज्योतिषियों और पंडितों से विमर्श किया तो वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हो सकता है कि सिंहासन अब अपना सारा चमत्कार खो चुका हो। उन्होंने कहा कि हो सकता है कि सिंहासन अब सोने का न हो तथा रत्न और माणिक्य काँच के टुकड़े मात्र हों। उस राजा ने जब ऐसा सुना तो कहा कि यह असम्भव है। चोरों से उसने उसे खरीदने से पहले पूरी जाँच करवाई थी। लेकिन जब जौहरियों ने फिर से उसकी जाँच की तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ। सिंहासन की चमक फीकी पड़ गई थी तथा वह एकदम पीतल का हो गया था। रत्न-माणिक्य की जगह काँच के रंगीन टुकड़े थे। सिंहासन पर बैठने वाले राजा को भी बहुत आश्चर्य हुआ। उसने अपने ज्योतिषियों और पण्डितों से सलाह की तथा उन्हें गणना करने को कहा। उन्होंने काफी अध्ययन करने के बाद कहा कि यह चमत्कारी सिंहासन अब मृत हो गया है। इसे अपवित्र कर दिया गया और इसका प्रभाव जाता रहा। उन्होंने कहा- "अब इस मृत सिंहासन का शास्रोक्त विधि से अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। इसे जल में प्रवाहित कर दिया जाना चाहिए।" उस राजा ने तत्काल अपने कर्मचारियों को बुलाया तथा मज़दूर बुलवा कर मंत्रोच्चार के बीच उस सिंहासन को कावेरी नदी में प्रवाहित कर दिया। समय बीतता रहा। वह सिंहासन इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गया। लोक कथाओं और जन-श्रुतियों में उसकी चर्चा होती रही। अनेक राजाओं ने विक्रमादित्य का सिंहासन प्राप्त करने के लिए कालान्तर में एक से बढ़कर एक गोता खोरो को तैनात किया और कावेरी नदी को छान मारा गया। मगर आज तक उसकी झलक किसी को नहीं मिल पाई है। लोगों का विश्वास है कि आज भी विक्रमादित्य की सी खूबियों वाला अगर कोई शासक हो तो वह सिंहासन अपनी सारी विशेषताओं और चमक के साथ बाहर आ जाएगा।…
कौशल्या इकत्तीसवीं पुतली जिसका नाम कौशल्या था, ने अपनी कथा इस प्रकार कही- राजा विक्रमादित्य वृद्ध हो गए थे तथा अपने योगबल से उन्होंने यह भी जान लिया कि उनका अन्त अब काफी निकट है। वे राज-काज और धर्म कार्य दोनों में अपने को लगाए रखते थे। उन्होंने वन में भी साधना के लिए एक आवास बना रखा था। एक दिन उसी आवास में एक रात उन्हें अलौकिक प्रकाश कहीं दूर से आता मालूम पड़ा। उन्होंने गौर से देखा तो पता चला कि सारा प्रकाश सामने वाली पहाड़ियों से आ रहा है। इस प्रकाश के बीच उन्हें एक दमकता हुआ सुन्दर भवन दिखाई पड़ा। उनके मन में भवन देखने की जिज्ञासा हुई और उन्होंने काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया। उनके आदेश पर बेताल उन्हें पहाड़ी पर ले आए और उनसे बोले कि वे इसके आगे नहीं जा सकते। कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि उस भवन के चारों ओर एक योगी ने तंत्र का घेरा डाल रखा है तथा उस भवन में उसका निवास है। उन घेरों के भीतर वही प्रवेश कर सकता है जिसका पुण्य उस योगी से अधिक हो। विक्रम ने सच जानकर भवन की ओर कदम बढ़ा दिया । वे देखना चाहते थे कि उनका पुण्य उस योगी से अधिक है या नहीं। चलते-चलते वे भवन के प्रवेश द्वार तक आ गए। एकाएक कहीं से चलकर एक अग्नि पिण्ड आया और उनके पास स्थिर हो गया। उसी समय भीतर से किसी का आज्ञाभरा स्वर सुनाई पड़ा। वह अग्निपिण्ड सरककर पीछे चला गया और प्रवेश द्वार साफ़ हो गया। विक्रम अन्दर घुसे तो वही आवाज़ उनसे उनका परिचय पूछने लगी। उसने कहा कि सब कुछ साफ़-साफ़ बताया जाए नहीं तो वह आने वाले को श्राप से भ कर देगा। विक्रम तब तक कक्ष में पहुँच चुके थे और उन्होंने देखा कि योगी उठ खड़ा हुआ। उन्होंने जब उसे बताया कि वे विक्रमादित्य हैं तो योगी ने अपने को भाग्यशाली बताया। उसने कहा कि विक्रमादित्य के दर्शन होंगे यह आशा उसे नहीं थी। योगी ने उनका खूब आदर-सत्कार किया तथा विक्रम से कुछ माँगने को बोला। राजा विक्रमादित्य ने उससे तमाम सुविधाओं सहित वह भवन माँग लिया। विक्रम को वह भवन सौंपकर योगी उसी वन में कहीं चला गया। चलते-चलते वह काफी दूर पहुँचा तो उसकी भेंट अपने गुरु से हुई। उसके गुरु ने उससे इस तरह भटकने का कारण जानना चाहा तो वह बोला कि भवन उसने राजा विक्रमादित्य को दान कर दिया है। उसके गुरु को हँसी आ गई। उसने कहा कि इस पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ दानवीर को वह क्या दान करेगा और उसने उसे विक्रमादित्य के पास जाकर ब्राह्मण रुप में अपना भवन फिर से माँग लेने को कहा। वह वेश बदलकर उस कुटिया में विक्रम से मिला जिसमें वे साधना करते थे। उसने रहने की जगह की याचना की। विक्रम ने उससे अपनी इच्छित जगह माँगने को कहा तो उसने वह भवन माँगा। विक्रम ने मुस्कुराकर कहा कि वह भवन ज्यों का त्यों छोड़कर वे उसी समय आ गए थे। उन्होंने बस उसकी परीक्षा लेने के लिए उससे वह भवन लिया था। इस कथा के बाद इकत्तीसवीं पुतली ने अपनी कथा खत्म नहीं की। वह बोली- राजा विक्रमादित्य भले ही देवताओं से बढ़कर गुण वाले थे और इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, वे थे तो मानव ही। मृत्युलोक में जन्म लिया था, इसलिए एक दिन उन्होंने इहलीला त्याग दी। उनके मरते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया। उनकी प्रजा शोकाकुल होकर रोने लगी। जब उनकी चिता सजी तो उनकी सभी रानियाँ उस चिता पर सती होने को चढ़ गईं। उनकी चिता पर देवताओं ने फूलों की वर्षा की। उनके बाद उनके सबसे बड़े पुत्र को राजा घोषित किया गया। उसका धूमधाम से तिलक हुआ। मगर वह उनके सिंहासन पर नहीं बैठ सका। उसको पता नहीं चला कि पिता के सिंहासन पर वह क्यों नहीं बैठ सकता है। वह उलझन में पड़ा था कि एक दिन स्वप्न में विक्रम खुद आए। उन्होंने पुत्र को उस सिंहासन पर बैठने के लिए पहले देवत्व प्राप्त करने को कहा। उन्होंने उसे कहा कि जिस दिन वह अपने पुण्य-प्रताप तथा यश से उस सिंहासन पर बैठने लायक होगा तो वे खुद उसे स्वप्न में आकर बता देंगे। मगर विक्रम उसके सपने में नहीं आए तो उसे नहीं सूझा कि सिंहासन का किया क्या जाए। पंडितों और विद्वानों के परामर्श पर वह एक दिन पिता का स्मरण करके सोया तो विक्रम सपने में आए। सपने में उन्होंने उससे उस सिंहासन को ज़मीन में गड़वा देने के लिए कहा तथा उसे उज्जैन छोड़कर अम्बावती में अपनी नई राजधानी बनाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि जब भी पृथ्वी पर सर्वगुण सम्पन्न कोई राजा कालान्तर में पैदा होगा, यह सिंहासन खुद-ब-खुद उसके अधिकार में चला जाएगा। पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर उसने सुबह में मजदूरों को बुलवाकर एक खूब गहरा गड्ढा खुदवाया तथा उस सिंहासन को उसमें दबवा दिया। वह खुद अम्बावती को नई राजधानी बनवाकर शासन करने लगा।…
जयलक्ष्मी तीसवीं पुतली जयलक्ष्मी ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य जितने बड़े राजा थे उतने ही बड़े तपस्वी। उन्होंने अपने तप से जान लिया कि वे अब अधिक से अधिक छ: महीने जी सकते हैं। अपनी मृत्यु को आसन्न समझकर उन्होंने वन में एक कुटिया बनवा ली तथा राज-काज से बचा हुआ समय साधना में बिताने लगे। एक दिन राजमहल से कुटिया की तरफ आ रहे थे कि उनकी नज़र एक मृग पर पड़ी। मृग अद्भुत था और ऐसा मृग विक्रम ने कभी नहीं देखा था। उन्होंने धनुष हाथ में लेकर दूसरा हाथ तरकश में डाला ही था कि मृग उनके समीप आकर मनुष्य की बोली में उनसे अपने प्राणों की भीख माँगने लगा। विक्रम को उस मृग को मनुष्यों की तरह बोलते हुए देख बड़ा आश्चर्य हुआ और उनका हाथ स्वत: थम गया। विक्रम ने उस मृग से पूछा कि वह मनुष्यों की तरह कैसे बोल लेता है तो वह बोला कि यह सब उनके दर्शन के प्रभाव से हुआ है। विक्रम की जिज्ञासा अब और बढ़ गई। उन्होंने उस मृग को पूछा कि ऐसा क्यों हुआ तो उसने बताना शुरु किया। "मैं जन्मजात मृग नहीं हूँ। मेरा जन्म मानव कुल में एक राजा के यहाँ हुआ। अन्य राजकुमारों की भाँति मुझे भी शिकार खेलने का बहुत शौक था। शिकार के लिए मैं अपने घोड़े पर बहुत दूर तक घने जंगलों में घुस जाता था। एक दिन मुझे कुछ दूरी पर मृग होने का आभास हुआ और मैंने आवाज़ को लक्ष्य करके एक वाण चलाया। दरअसल वह आवाज़ एक साधनारत योगी की थी जो बहुत धीमें स्वर में मंत्रोच्चार कर रहा था। तीर उसे तो नहीं लगा, पर उसकी कनपटी को छूता हुआ पूरो वेग से एक वृक्ष के तने में घुस गया। मैं अपने शिकार को खोजते-खोजते वहाँ तक पहुँचा तो पता चला मुझसे कैसा अनिष्ट होने से बच गया। योगी की साधना में विघ्न पड़ा था. इसलिए वह काफी क्रुद्ध हो गया था। उसने जब मुझे अपने सामने खड़ा पाया तो समझ गया कि वह वाण मैंने चलाया था। उसने लाल आँखों से घूरते हुए मुझे श्राप दे दिया। उसने कहा- "ओ मृग का शिकार पसंद करने वाले मूर्ख युवक, आज से खुद मृग बन जा। आज के बाद से आखेटकों से अपने प्राणों की रक्षा करता रह।" उसने श्राप इतनी जल्दी दे दिया कि मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ कहने का मौका नहीं मिला। श्राप की कल्पना से ही मैं भय से सिहर उठा। मैं योगी के पैरों पर गिर पड़ा तथा उससे श्राप मुक्त करने की प्रार्थना करने लगा। मैंने रो-रो कर उससे कहा कि उसकी साधना में विघ्न उत्पन्न करने का मेरा कोई इरादा नहीं था और यह सब अनजाने में मुझसे हो गया। मेरी आँखों में पश्चाताप के आँसू देखकर उस योगी को दया आ गई। उसने मुझसे कहा कि श्राप वापस तो नहीं लिया जा सकता, लेकिन वह उस श्राप के प्रभाव को सीमित ज़रुर कर सकता है। मैंने कहा कि जितना अधिक संभव है उतना वह श्राप का प्रभाव कम कर दे तो उसने कहा- "तुम मृग बनकर तब तक भटकते रहोगे जब तक महान् यशस्वी राजा विक्रमादित्य के दर्शन नहीं हो जाएँ। विक्रमादित्य के दर्शन से ही तुम मनुष्यों की भाँति बोलना शुरु कर दोगे।" विक्रम को अब जिज्ञासा हुई कि वह मनुष्यों की भाँति बोल तो रहा है मगर मनुष्य में परिवर्तित नहीं हुआ है। उन्होंने उससे पूछा- "तुम्हें मृग रुप से कब मुक्ति मिलेगी? कब तुम अपने वास्तविक रुप को प्राप्त करोगे? वह श्रापित राजकुमार बोला- "इससे भी मुझे मुक्ति बहुत शीघ्र मिल जाएगी। उस योगी के कथनानुसार मैं अगर आपको साथ लेकर उसके पास जाऊँ तो मेरा वास्तविक रुप मुझे तुरन्त ही वापस मिल जाएगा।" विक्रम खुश थे कि उनके हाथ से शापग्रस्त राजकुमार की हत्या नहीं हुई अन्यथा उन्हें निरपराध मनुष्य की हत्या का पाप लग जाता और वे ग्लानि तथा पश्चाताप की आग में जल रहे होते। उन्होंने मृगरुपी राजकुमार से पूछा- "क्या तुम्हें उस योगी के निवास के बारे में कुछ पता है? क्या तुम मुझे उसके पास लेकर चल सकते हो?" उस राजकुमार ने कहा- "हाँ, मैं आपको उसकी कुटिया तक अभी लिए चल सकता हूँ। संयोग से वह योगी अभी भी इसी जंगल में थोड़ी दूर पर साधना कर रहा है।" वह मृग आगे-आगे चला और विक्रम उसका अनुसरण करते-करते चलते रहे। थोड़ी दूर चलने के पश्चात उन्हें एक वृक्ष पर उलटा होकर साधना करता एक योगी दिखा। उनकी समझ में आ गया कि राजकुमार इसी योगी की बात कर रहा था। वे जब समीप आए तो वह योगी उन्हें देखते ही वृक्ष से उतरकर सीधा खड़ा हो गया। उसने विक्रम का अभिवादन किया तथा दर्शन देने के लिए उन्हें नतमस्तक होकर धन्यवाद दिया। विक्रम समझ गए कि वह योगी उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन उन्हें जिज्ञासा हुई कि वह उनकी प्रतीक्षा क्यों कर रहा था। पूछने पर उसने उन्हें बताया कि सपने में एक दिन इन्द्र देव ने उन्हें दर्शन देकर कहा था कि महाराजा विक्रमादित्य ने अपने कर्मों से देवताओं-सा स्थान प्राप्त कर लिया है तथा उनके दर्शन प्राप्त करने वाले को इन्द्र देव या अन्य देवताओं के दर्शन का फल प्राप्त होता है। "मैं इतनी कठिन साधना सिर्फ आपके दर्शन का लाभ पाने के लिए कर रहा था।"- उस योगी ने कहा। विक्रम ने पूछा कि अब तो उसने उनके दर्शन प्राप्त कर लिए, क्या उनसे वह कुछ और चाहता है। इस पर योगी ने उनसे उनके गले में पड़ी इन्द्र देव के मूंगे वाली माला मांगी। राजा ने खुशी-खुशी वह माला उसे दे दी। योगी ने उनका आभार प्रकट किया ही था कि श्रापित राजकुमार फिर से मानव बन गया। उसने पहले विक्रम के फिर उस योगी के पाँव छूए। राजकुमार को लेकर विक्रम अपने महल आए। दूसरे दिन अपने रथ पर उसे बिठा उसके राज्य चल दिए। मगर उसके राज्य में प्रवेश करते ही सैनिकों की टुकड़ी ने उनके रथ को चारों ओर से घेर लिया तथा राज्य में प्रवेश करने का उनका प्रयोजन पूछने लगे। राजकुमार ने अपना परिचय दिया और रास्ता छोड़ने को कहा। उसने जानना चाहा कि उसका रथ रोकने की सैनिकों ने हिम्मत कैसे की। सैनिकों ने उसे बताया कि उसके माता-पिता को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया गया है और अब इस राज्य पर किसी और का अधिकार हो चुका है। चूँकि राज्य पर अधिकार करते वक्त राजकुमार का कुछ पता नहीं चला, इसलिए चारों तरफ गुप्तचर उसकी तलाश में फैला दिए गये थे। अब उसके खुद हाज़िर होने से नए शासक का मार्ग और प्रशस्त हो गया है। राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना परिचय नहीं दिया और खुद को राजकुमार के दूत के रुप में पेश करते हुए कहा कि उनका एक संदेश नये शासक तक भेजा जाए। उन्होंने उस टुकड़ी के नायक को कहा कि नये शासक के सामने दो विकल्प हैं- या तो वह असली राजा और रानी को उनका राज्य सौंपकर चला जाए या युद्ध की तैयारी करे। उस सेनानायक को बड़ अजीब लगा। उसने विक्रम का उपहास करते हुए पूछा कि युद्ध कौन करेगा। क्या वही दोनों युद्ध करेंगे। उसको उपहास करते देख उनका क्रोध साँतवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने तलवार निकाली और उसका सर धड़ से अलग कर दिया। सेना में भगदड़ मच गई। किसी ने दौड़कर नए शासक को खबर की। वह तुरन्त सेना लेकर उनकी ओर दौड़ा। विक्रम इस हमले के लिए तैयार बैठे थे। उन्होंने दोनों बेतालों का स्मरण किया तथा बेतालों ने उनका आदेश पाकर रथ को हवा में उठ लिया। उन्होंने वह तिलक लगाया जिससे अदृश्य हो सकते थे और रथ से कूद गये। अदृश्य रहकर उन्होंने दुश्मनों को गाजर-मूली की तरह काटना शुरु कर दिया। जब सैकड़ो सैनिक मारे गए और दुश्मन नज़र नहीं आया तो सैनिकों में भगदड़ मच गई और राजा को वहीं छोड़ अधिकांश सैनिक रणक्षेत्र से भाग खड़े हुए। उन्हें लगा कि कोई पैशाचिक शक्ति उनका मुक़ाबला कर रही है। नए शासक का चेहरा देखने लायक था। वह आश्चर्यचकित और भयभीत था ही, हताश भी दिख रहा था। उसे हतप्रभ देख विक्रम ने अपनी तलवार उसकी गर्दन पर रख दी तथा अपने वास्तविक रुप में आ गए। उन्होंने उस शासक से अपना परिचय देते हुए कहा कि या तो वह इसी क्षण यह राज्य छोड़कर भाग जाए या प्राण दण्ड के लिए तैयार रहे। वह शासक विक्रमादित्य की शक्ति से परिचित था तथा उनका शौर्य आँखों से देख चुका था, अत: वह उसी क्षण उस राज्य से भाग गया। वास्तविक राजा-रानी को उनका राज्य वापस दिलाकर वे अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में एक जंगल पड़ा। उस जंगल में एक मृग उनके पास आया तथा एक सिंह से अपने को बचाने को बोला। मगर महाराजा विक्रमादित्य ने उसकी मदद नहीं की। वे भगवान के बनाए नियम के विरुद्ध नहीं जा सकते थे। सिंह भूखा था और मृग आदि जानवर ही उसकी क्षुधा शान्त कर सकते थे। यह सोचते हुए उन्होंने सिहं को मृग का शिकार करने दिया।…
मानवती उन्तीसवीं पुतली मानवती ने इस प्रकार कथा सुनाई- राजा विक्रमादित्य वेश बदलकर रात में घूमा करते थे। ऐसे ही एक दिन घूमते-घूमते नदी के किनारे पहुँच गए। चाँदनी रात में नदी का जल चमकता हुआ बड़ा ही प्यारा दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। विक्रम चुपचाप नदी तट पर खड़े थे तभी उनके कानों में "बचाओ-बचाओ" की तेज आवाज पड़ी। वे आवाज की दिशा में दौड़े तो उन्हें नदी की वेगवती धारा से जूझते हुए दो आदमी दिखाई पड़े। गौर से देखा तो उन्हें पता चला कि एक युवक और एक युवती तैरकर किनारे आने की चेष्टा में हैं, मगर नदी की धाराएँ उन्हें बहाकर ले जाती हैं। विक्रम ने बड़ी फुर्ती से नदी में छलांग लगा दी और दोनों को पकड़कर किनारे ले आए। युवती के अंग-अंग से यौवन छलक रहा था। वह अत्यन्त रुपसी थी। उसका रुप देखकर अप्सराएँ भी लज्जित हो जातीं। कोई तपस्वी भी उसे पास पाकर अपनी तपस्या छोड़ देता और गृहस्थ बनकर उसके साथ जीवन गुज़ारने की कामना करता। दोनों कृतज्ञ होकर अपने प्राण बचाने वाले को देख रहे थे। युवक ने बताया कि वे अपने परिवार के साथ नौका से कही जा रहे थे। नदी के बीच में वे भंवर को नहीं देख सके और उनकी नौका भंवर में जा फँसी। भंवर से निकलने की उन लोगों ने लाख कोशिश की, पर सफल नहीं हो सके। उनके परिवार के सारे सदस्य उस भंवर में समा गए, लेकिन वे दोनों किसी तरह यहाँ तक तैरकर आने में कामयाब हो गए। राजा ने उनका परिचय पूछा तो युवक ने बताया कि दोनों भाई-बहन है और सारंग देश के रहने वाले हैं। विक्रम ने कहा कि उन्हें सकुशल अपने देश भेज दिया जाएगा। उसके बाद उन्होंने उन्हें अपने साथ चलने को कहा और अपने महल की ओर चल पड़े। राजमहल के नजदीक जब वे पहुँचे तो विक्रम को प्रहरियों ने पहचानकर प्रणाम किया। युवक-युवती को तब जाकर मालूम हुआ कि उन्हें अपने प्राणों की परवाह किए बिना बचाने वाला आदमी स्वयं महाराजाधिराज थे। अब तो वे और कृतज्ञताभरी नज़रों से महाराज को देखने लगे। महल पहुँचकर उन्होंने नौकर-चाकरों को बुलाया तथा सारी सुविधाओं के साथ उनके ठहरने का इंतजाम करने का निर्देश दिया। अब तो दोनों का मन महाराज के प्रति और अधिक आदरभाव से भर गया। वह युवक अपनी बहन के विवाह के लिए काफी चिन्तित रहता था। उसकी बहन राजकुमारियों से भी सुन्दर थी, इसलिए वह चाहता था कि किसी राजा से उसकी शादी हो। मगर उसकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी और वह अपने इरादे में कामयाब नहीं हो पा रहा था। जब संयोग से राजा विक्रमादित्य सो उसकी भेंट हो गई तो उसने सोचा कि क्यों न विक्रम को उसकी बहन से शादी का प्रस्ताव दिया जाए। यह विचार आते ही उसने अपनी बहन को ठीक से तैयार होने को कही तथा उसे साथ लेकर राजमहल उनसे मिलने चल पड़ा। उसकी बहन जब सजकर निकली तो उसका रुप देखने लायक था। उसके रुप पर देवता भी मोहित हो जाते मनुष्य की तो कोई बात ही नहीं। जब वह राजमहल आया तो विक्रम ने उससे उसका हाल-चाल पूछा तथा कहा कि उसके जाने का समुचित प्रबन्ध कर दिया गया है। उसने राजा की कृतज्ञता जाहिर करते हुए कहा कि उन्होंने जो उपकार उस पर किये उसे आजीवन वह नहीं भूलेगा। उसके बाद उसने विक्रम से एक छोटा-सा उपहार स्वीकार करने को कहा। राजा ने मुस्कुराकर अपनी अनुमति दे दी। राजा को प्रसन्न देखकर उसने सोचा कि वे उसकी बहन पर मोहित हो गए हैं। उसका हौसला बढ़ गया। उसने कहा कि वह अपनी बहन उनको उपहार देना चाहता है। विक्रम ने कहा कि उसका उपहार उन्हें स्वीकार है। अब उसको पूरा विश्वास हो गया कि विक्रम उसकी बहन को रानी बना लेंगे। तभी राजा ने कहा कि आज से तुम्हारी बहन राजा विक्रमादित्य की बहन के रुप में जानी जाएगी तथा उसका विवाह वह कोई योग्य वर ढूँढकर पूरे धूम-धाम से करेंगे। वह विक्रम का मुँह ताकता रह गया। उसे सपने में भी नहीं भान था कि उसकी बहन की सुन्दरता को अनदेखा कर विक्रम उसे बहन के रुप में स्वीकार करेंगे। क्या कोई ऐश्वर्यशाली राजा विषय-वासना से इतना ऊपर रह सकता है। छोड़ी देर बाद उसने संयत होकर कहा कि उदयगिरि का राजकुमार उदयन उसकी बहन की सुन्दरता पर मोहित है तथा उससे विवाह की इच्छा भी व्यक्त कर चुका है। राजा ने एक पंडित को बुलाया तथा बहुत सारा धन भेंट के रुप में देकर उदयगिरि राज्य विवाह का प्रस्ताव लेकर भेजा। पंडित उसी शाम लौट गया और उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। पूछने पर उसने बताया कि राह में कुछ डाकुओं ने घेरकर सब कुछ लूट लिया। सुनकर राजा स्तब्ध रह गए। उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतनी अच्छी शासन-व्यवस्था के बावजूद भी डाकू लुटेरे कैसे सक्रिय हो गए। इस बार उन्होंने पंडित को कुछ अश्वारहियों के साथ धन लेकर भेजा। उसी रात विक्रम वेश बदलकर उन डाकुओं का पता लगाने निकल पड़े। वे उस निर्जन स्थान पर पहुँचे जहाँ पंडित को लूट लिया गया था। एक तरफ उन्हें चार आदमी बैठे दिख पड़े। राजा समझ गए कि वे लुटेरे हैं। विक्रम को कोई गुप्तचर समझा। राजा ने उनसे भयभीत नहीं होने को कहा और अपने आपको भी उनकी तरह एक चोर ही बताया। इस पर उन्होंने कहा कि वे चोर नहीं बल्कि इज्ज़तदार लोग हैं और किसी खास मसले पर विचार-विमर्श के लिए एकांत की खोज में यहाँ पहुँचे हैं। राजा ने उनसे बहाना न बनाने के लिए कहा और उन्हें अपने दल में शामिल कर लेने को कहा। तब चोरों ने खुलासा किया कि उन चारों में चार अलग-अलग खुबियाँ हैं। एक चोरी का शुभ मुहू निकालता था, दूसरा परिन्दे-जानवरों की ज़बान समझता था, तीसरा अदृश्य होने की कला जानता था तथा चौथा भयानक से भयानक यातना पाकर भी उफ़ तक नहीं करता था। विक्रम ने उनका विश्वास जीतने के लिए कहा- "मैं कहीं भी छिपाया धन देख सकता हूँ।" जब उन्होंने यह विशेषता सुनी तो विक्रम को अपनी टोली में शामिल कर लिया। उसके बाद उन्होंने अपने ही महल के एक हिस्से में चोरी करने की योजना बनाई। उस जगह पर शाही खज़ाने का कुछ माल छिपा था। वे चोरों को वहाँ लेकर आए तो चारों चोर बड़े ही खुश हुए। उन्होंने खुशी-खुशी सारा माल झोली में डाला और बाहर निकलने लगे। चौकस प्रहरियों ने उन्हें पकड़ लिया। सुबह में जब राजा के दरबार में बंदी बनाकर उन्हें पेश किया गया तो वे डर से पत्ते की तरह काँपने लगे। उन्होंने अपने पाँचवे साथी को सिंहासन पर आरुढ़ देखा। वे गुमसुम खड़े राजदण्ड की प्रतीक्षा करने लगे। मगर विक्रम ने उन्हें कोई दण्ड नहीं दिया। उन्हें अभयदान देकर उन्होंने उनसे अपराध न करने का वचन लिया और अपनी खूबियों का इस्तेमाल लोगों की भलाई के लिए करने का आदेश दिया। चारों ने मन ही मन अपने राजा की महानता स्वीकार कर ली और भले आदमियों की तरह जीवन यापन का फैसला कर लिया। राजा ने उन्हें सेना में बहाल कर लिया। उदयन ने भी राजा विक्रम की मुँहबोली बहन से शादी का प्रस्ताव प्रसन्न होकर स्वीकार कर लिया। शुभ मुहू में विक्रम ने उसी धूम-धाम से उसकी शादी उदयन के साथ कर दी जिस तरह किसी राजकुमारी की होती है।…
वैदेही अट्ठाइसवीं पुतली का नाम वैदेही था और उसने अपनी कथा इस प्रकार कही- एक बार राजा विक्रमादित्य अपने शयन कक्ष में गहरी निद्रा में लीन थे। उन्होंने एक सपना देखा। एक स्वर्ण महल है जिसमें रत्न, माणिक इत्यादि जड़े हैं। महल में बड़े-बड़े कमरे हैं जिनमें सजावट की अलौकिक चीज़े हैं। महल के चारों ओर उद्यान हैं और उद्यान में हज़ारों तरह के सुन्दर-सुन्दर फूलों से लदे पौधे हैं। उन फूलों पर तरह-तरह की तितलियाँ मँडरा रही और भंवरों का गुंजन पूरे उद्यान में व्याप्त है। फूलों की सुगन्ध चारों ओर फैली हुई है और सारा दृश्य बड़ा ही मनोरम है। स्वच्छ और शीतल हवा बह रही है और महल से कुछ दूरी पर एक योगी साधनारत है। योगी का चेहरा गौर से देखने पर विक्रम को वह अपना हमशDल मालूम पड़ा। यह सब देखते-देखते ही विक्रम की आँखें खुल गईं। वे समझ गए कि उन्होंने कोई अच्छा सपना देखा है। जगने के बाद भी सपने में दिखी हर चीज़ उन्हें स्पष्ट याद थी। उन्हें अपने सपने का मतलब समझ में नहीं आया। सारा दृश्य अलौकिक अवश्य था, मगर मन की उपज नहीं माना जा सकता था। राजा ने बहुत सोचा पर उन्हें याद नहीं आया कि कभी अपने जीवन में उन्होंने ऐसा कोई महल देखा हो चाहे इस तरह के किसी महल की कल्पना की हो। उन्होंने पण्डितों और ज्योतिषियों से अपने सपने की चर्चा की और उन्हें इसकी व्याख्या करने को कहा। सारे विद्वान और पण्डित इस नतीजे पर पहुँचे कि महाराजाधिराज ने सपने में स्वर्ग का दर्शन किया है तथा सपने का अलौकिक महल स्वर्ग के राजा इन्द्र का महल है। देवता शायद उन्हें वह महल दिखाकर उन्हें सशरीर स्वर्ग आने का निमन्त्रण दे चुके है। विक्रम यह सुनकर बड़े आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने कभी भी न सोचा था कि उन्हें स्वर्ग आने का इस तरह निमंत्रण मिलेगा। वे पण्डितों से पूछने लगे कि स्वर्ग जाने का कौन सा मार्ग होगा तथा स्वर्ग यात्रा के लिए क्या-क्या आवश्यकता हो सकती है। काफी मंथन के बाद सारे विद्वानों ने उन्हें वह दिशा बताई जिधर से स्वर्गरोहण हो सकता था तथा उन्हें बतलाया कि कोई पुण्यात्मा जो सतत् भगवान का स्मरण करता है तथा धर्म के पथ से विचलित नहीं होता है वही स्वर्ग जाने का अधिकारी है। राजा ने कहा कि राजपाट चलाने के लिए जानबूझकर नही तो भूल से ही अवश्य कोई धर्म विरुद्ध आचरण उनसे हुआ होगा। इसके अलावा कभी-कभी राज्य की समस्या में इतने उलझ जाते हैं कि उन्हें भगवान का स्मरण नहीं रहता है। इस पर सभी ने एक स्वर से कहा कि यदि वे इस योग्य नहीं होते तो उन्हें स्वर्ग का दर्शन ही नहीं हुआ होता। सबकी सलाह पर उन्होंने राजपुरोहित को अपने साथ लिया और स्वर्ग की यात्रा पर निकल पड़े। पण्डितों के कथन के अनुसार उन्हें यात्रा के दौरान दो पुण्यकर्म भी करने थे। यह यात्रा लम्बी और कठिन थी। विक्रम ने अपना राजसी भेष त्याग दिया था और अत्यन्त साधारण कपड़ों में यात्रा कर रहे थे। रास्ते में एक नगर में रात में विश्राम के लिए रुक गए। जहाँ रुके थे वहाँ उन्हें एक बूढी औरत रोती हुई मिली। उसके माथे पर चिन्ता की लकीरें उभरी हुई थीं तथा गला रोते-रोते र्रूँधा जा रहा था। विक्रम ने द्रवित होकर उससे उसकी चिन्ता का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसका एकमात्र जवान बेटा सुबह ही जंगल गया, लेकिन अभी तक नहीं लौटा है। विक्रम ने जानना चाहा कि वह जंगल किस प्रयोजन से गया। बूढ़ी औरत ने बताया कि उसका बेटा रोज़ सुबह में जंगल से सूखी लकड़ियाँ लाने जाता है और लकड़ियाँ लाकर नगर में बेचता है। लकड़ियाँ बेचकर जो पासा मिलता है उसी से उनका गुज़ारा होता है। विक्रम ने कहा कि अब तक वह नहीं आया हे तो आ जाएगा। बूढ़ी औरत ने कहा कि जंगल बहुत घना है और नरभक्षी जानवरों से भरा पड़ा है। उसे शंका है कि कहीं किसी हिंसक जानवर ने उसे अपना ग्रास न बना लिया हो। उसने यह भी बताया कि शाम से वह बहुत सारे लोगों से विनती कर चुकी है कि उसके बेटे का पता लगाए, लेकिन कोई भी जंगल जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने अपनी विवशता दिखाई कि वह बूढ़ी और निर्बल है, इसलिए खुद जाकर पता नहीं कर सकती है। विक्रम ने उसे आश्वासन दिया कि वे जाकर उसे ढूँढेंगे। उन्होंने विश्राम का विचार त्याग दिया और तुरन्त जंगल की ओर चल पड़े। थोड़ी देर बाद उन्होंने जंगल में प्रवेश किया तो देखा कि जंगल सचमुच बहुत घना हो। वे चौकन्ने होकर थोड़ी दूर आए तो उन्होंने देखा कि एक नौजवान कुल्हाड़ी लेकर पेड़ पर दुबका बैठा है और नीचे एक शेर घात लगाए बैठा है। विक्रम ने कोई उपाय ढूँढकर शेर को वहाँ से भगा दिया और उस युवक को लेकर नगर लौट आए। बुढिया ने बेटे को देखकर विलाप करना छोड़ दिया और विक्रम को ढेरों आशीर्वाद दिए। इस तरह बुढिया को चिन्तामुक्त करके उन्होंने एक पुण्य का काम किया। रात भर विश्राम करने के बाद उन्होंने सुबह फिर से अपनी यात्रा शुरु कर दी। चलते-चलते वे समुद्र तट पर आए तो उन्होंने एक स्री को रोते हुए देखा। स्री को रोते देख वे उसके पास आए तो देखा कि एक मालवाहक जहाज खड़ा है और कुछ लोग उस जहाज पर सामान लाद रहे हैं। उन्होंने उस स्री से उसके रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि बस तीन महीने पहले उसकी विवाह हुआ और वह गर्भवती है। उसका पति इसी जहाज पर कर्मचारी है तथा जहाज का माल लेकर दूर देश जा रहा है। विक्रम ने जब उसे कहा कि इसमे परेशानी की कोई बात नहीं है और कुछ ही समय बाद उसका पति लौट आएगा तो उसने अपनी चिन्ता का कारण कुछ और ही बताया। उसने बताया कि उसने कल सपने में देखा कि एक मालवाहक जहाज समुद्र के बीच में ही और भयानक तूफान में घिर जाता है। तूफ़ान इतना तेज है कि जहाज के टुकड़े-टुकड़े हो जाते है और उस पर सारे सवार समुद्र में डूब जाते हैं। वह सोच रही है कि अगर वह सपना सच निकला तो उसका क्या होगा। खुद तो किसी प्रकार जी भी लेगी मगर उसके होने वाले बच्चे की परवरिश कैसे होगी। विक्रम को उस पर तरस आया और उन्होंने समुद्र देवता द्वारा प्रदत्त शंख उसे देते हुए कहा- "यह अपने पति को दे दो। जब भी तूफान या अन्य कोई प्राकृतिक विपदा आए तो इसे फूँक देगा। उसके फूँक मारते ही सारी विपत्ति हल जाएगी।" औरत को उन पर विश्वास नहीं हुआ और वह शंकालु दृष्टि से उन्हें देखने लगी। विक्रम ने उसके चेहरे का भाव पढ़कर शंख की फूँक मारी। शंख की ध्वनि हुई और समुद्र का पानी कोसों दूर चला गया। उस पानी के साथ वह जहाज और उस पर के सारे कर्मचारी भी कोसों दूर चले गए। अब दूर-दूर तक सिर्फ समुद्र तट फैला न आता था। वह स्री और कुछ अन्य लोग जो वहाँ थे हैरान रह गए। उनकी आँखें फटी रह गई। जब विक्रम ने दुबारा शंख फूँका तो समुद्र का पानी फिर से वहाँ हिलोड़ें मारने लगा। समुद्र के पानी के साथ वह जहाज भी कर्मचारियों सहित वापस आ गया। अब युवती को उस शंख की चमत्कारिक शक्ति के प्रति कोई शंका नहीं रही। उसने विक्रम से वह शंख लेकर अपनी कृतज्ञता जाहिर की। विक्रम उस स्री को शंख देकर अपनी यात्रा पर निकल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद उन्हें एक स्थान पर रुकना पड़ा। आकाश में काली घटाएँ छा गईं थी। बिजलियाँ चमकने लगी थीं। बादल के गर्जन से समूचा वातावरण हिलता प्रतीत होता था। उन बिजलियों के चमक के बीच विक्रम को एक सफेद घोड़ा ज़मीन की ओर उतरता दिख। विक्रम ने ध्यान से उसकी ओर देखा तभी आकाशवाणी हुई- "महाराजा विक्रमादित्य तुम्हारे जैसा पुण्यात्मा शायद ही कोई हो। तुमने रास्ते में दो पुण्य किए। एक बूढ़ी औरत को चिन्तामुक्त किया और एक स्री को सिर्फ शंका दूर करने के लिए वह अनमोल शंख दे दिया जो समुद्र देव ने तुम्हें तुम्हारी साधना से प्रसन्न होकर उपहार दिया था। तुम्हें लेने के लिए एक घोड़ा भेजा जा रहा है जो तुम्हे इन्द्र के महल तक पहुँचा देगा।" विक्रम ने कहा- "मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ राजपुरोहित भी हैं। उनके लिए भी कोई व्यवस्था हो।" इतना सुनना था कि राजपुरोहित ने कहा-"राजन्, मुझे क्षमा करें। सशरीर स्वर्ग जाने से मैं डरता हूँ। आपका सान्निध्य रहा तो मरने पर स्वर्ग जाऊँगा और अपने को धन्य समझूँगा।" घोड़ा उनके पास उतरा तो सवारी के लिए सब कुछ से लैस था। राजपुरोहित से विदा लेकर विक्रम उस पर बैठ गए। एड़ लगाते ही घोड़ा तेज़ी से भागा और घने जंगल में पहुँच गया। जंगल में पहुँचकर उसने धरती छोड़ दी और हवा में दौड़ने लगा। यह घुड़सवारी अप्राकृतिक थी, इसलिए काफी कठिन थी, मगर विक्रम पूरी दृढ़ता से उस पर बैठे रहे। हवा में कुछ देर उड़ने के बाद वह घोड़ा आकाश में दौड़ने लगा। दौड़ते-दौड़ते वह इन्द्रपुरी आया। इन्द्रपुरी पहुँचते ही विक्रम को वही सपनों वाला सोने का महल दिख पड़ा। जैसा उन्होंने सपने में देखा था ठीक वैसा ही सब कुछ था। चलते-चलते वे इन्द्रसभा पहुँचे। इन्द्रसभा में सारे देवता विराजमान थे। अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं। इन्द्र देव पत्नी के साथ अपने सिंहासन पर विराजमान थे। देवताओं की सभा में विक्रम को देखकर खलबली मच गई। वे सभी एक मानव के सशरीर स्वर्ग आने पर आश्चर्यचकित थे। विक्रम को देखकर इन्द्र खुद उनकी अगवानी करने आ गए और उन्हें अपने आसन पर बैठने को कहा। विक्रम ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इस आसन के योग्य वे नहीं हैं। इन्द्र उनकी नम्रता और सरलता से प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा कि विक्रम ने सपने में अवश्य एक योगी को इस महल में देखा होगा। उनका वह हमशक्ल और कोई नहीं बल्कि वे खुद हैं। उन्होंने इतना पुण्य अर्जित कर लिया है कि इन्द्र के महल में उन्हें स्थायी स्थान मिल चुका है। इन्द्र ने उन्हें एक मुकुट उपहार में दिया। इन्द्रलोक में कुछ दिन बिताकर मुकुट लेकर विक्रम अपने राज्य वापस आ गए।…
मलयवती मलयवती नाम की सताइसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- विक्रमादित्य बड़े यशस्वी और प्रतापी राजा था और राज-काज चलाने में उनका कोई मानी था। वीरता और विद्वता का अद्भुत संगम थे। उनके शस्र ज्ञान और शास्र ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी। वे राज-काज से बचा समय अकसर शास्रों के अध्ययन में लगाते थे और इसी ध्येय से उन्होंने राजमहल के एक हिस्से में विशाल पुस्तकालय बनवा रखा था। वे एक दिन एक धार्मिक ग्रन्थ पढ़ रहे थे तो उन्हें एक जगह राजा बलि का प्रसंग मिला। उन्होंने राजा बलि वाला सारा प्रसंग पढ़ा तो पता चला कि राजा बलि बड़े दानवीर और वचन के पक्के थे। वे इतने पराक्रमी और महान राजा थे कि इन्द्र उनकी शक्ति से डर गए। देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे बलि का कुछ उपाय करें तो विष्णु ने वामन रुप धरा। वामन रुप धरकर उनसे सब कुछ दान में प्राप्त कर लिया और उन्हें पाताल लोक जाने को विवश कर दिया। जब उनकी कथा विक्रम ने पढ़ी तो सोचा कि इतने बड़े दानवीर के दर्शन ज़रुर करने चाहिए। उन्होंने विचार किया कि भगवान विष्णु की आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया जाए तथा उनसे दैत्यराज बलि से मिलने का मार्ग पूछा जाए। ऐसा विचार मन में आते ही उन्होंने राज-पाट और मोह-माया से अपने आपको अलग कर लिया तथा महामन्त्री को राजभार सौंपकर जंगल की ओर प्रस्थान कर गए। जंगल में उन्होंने घोर तपस्या शुरु की और भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे। उनकी तपस्या बहुत लम्बी थी। शुरु में वे केवल एक समय का भोजन करते थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने वह भी त्याग दिया तथा फल और कन्द-मूल आदि खाकर रहने लगे। कुछ दिनों बाद सब कुछ त्याग दिया और केवल पानी पीकर तपस्या करते रहे। इतनी कठोर तपस्या से वे बहुत कमज़ोर हो गए और साधारण रुप से उठने-बैठने में भी उन्हें काफी मुश्किल होने लगी। धीरे-धीरे उनके तपस्या स्थल के पास और भी बहुत सारे तपस्वी आ गए। कोई एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या करने लगा तो कोई एक हाथ उठाकर, कोई काँटों पर लेटकर तपस्या में लीन हो गया तो कोई गरदन तक बालू में धँसकर। चारों ओर सिर्फ ईश्वर के नाम की चर्चा होने लगी और पवित्र वातावरण तैयार हो गया। विक्रम ने कुछ समय बाद जल भी लेना छोड़ दिया और बिलकुल निराहार तपस्या करने लगे। अब उनका शरीर और भी कमज़ोर हो गया और सिर्फ हड्डियों का ढाँचा न आने लगा। कोई देखता तो दया आ जाती, मगर राजा विक्रमादित्य को कोई चिन्ता नहीं थी। विष्णु की आराधना करते-करते यदि उनके प्राण निकल जाते तो सीधे स्वर्ग जाते और यदि विष्णु के दर्शन हो जाते तो दैत्यराज बलि से मिलने का मार्ग प्रशस्त होता। वे पूरी लगन से अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए तपस्यारत रहे। जीवन और शरीर का उन्हें कोई मोह नहीं रहा। राजा विक्रमादित्य का हुलिया ऐसा हो गया था कि कोई भी देखकर नहीं कह सकता था कि वे महाप्रतापी और सर्वश्रेष्ठ हैं। राजा के समीप ही तपस्या करने वाले एक योगी ने उनसे पूछा कि वे इतनी घोर तपस्या क्यों कर रहे हैं। विक्रम का जवाब था- "इहलोक से मुक्ति और परलोक सुधार के लिए।" तपस्वी ने उन्हें कहा कि तपस्या राजाओं का काम नहीं है।राजा को राजकाज के लिए ईश्वर द्वारा जन्म दिया जाता है और यही उसका कर्म है। अगर वह राज-काज से मुँह मोड़ता है तो अपने कर्म से मुँह मोड़ता है। शास्रों में कहा गया है कि मनुष्य को अपने कर्म से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। विक्रम ने बड़े ही गंभीर स्वर में उससे कहा कि कर्म करते हुए भी धर्म से कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। उन्होंने जब उससे पूछा कि क्या शास्रों में किसी भी स्थिति में धर्म से विमुख होने को कहा गया है तो तपस्वी एकदम चुप हो गया। उनके तर्कपूर्ण उत्तर ने उसे आगे कुछ पूछने लायक नहीं छोड़ा। राजा ने अपनी तपस्या जारी रखी। अत्यधिक निर्बलता के कारण एक दिन राजा बेहोश हो गए और काफी देर के बाद होश में आए। वह तपस्वी एक बार फिर उनके पास आया और उनसे तपस्या छोड़ देने को बोला। उसने कहा कि चूँकि राजा गृहस्थ हैं, इसलिए तपस्वियों की भाँति उन्हें तप नहीं करना चाहिए। गृहस्थ को एक सीमा के भीतर ही रहकर तपस्या करनी चाहिए। जब उसने राजा को बार-बार गृहस्थ धर्म की याद दिलाई और गृहस्थ कर्म के लिए प्रेरित किया तो राजा ने कहा कि वे मन की शान्ति के लिए तपस्या कर रहे हैं। तपस्वी कुछ नहीं बोला और वे फिर तपस्या करने लगे। कमज़ोरी तो थी ही- एक बार फिर वे अचेत हो गए। जब कई घण्टों बाद वे होश में आए तो उन्होंने पाया कि उनका सर भगवान विष्णु की गोद में है। उन्हें भगवान विष्णु को देखकर पता चल गया कि तपस्या से रोकने वाला तपस्वी और कोई नहीं स्वयं भगवान विष्णु थे। विक्रम ने उठकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया तो भगवान ने पूछा वे क्यों इतना कठोर तप कर रहे हैं। विक्रम ने कहा कि उन्हें राजा बलि से भेंट का रास्ता पता करना है। भगवान विष्णु ने उन्हें एक शंख देकर कहा कि समुद्र के बीचों-बीच पाताल लोक जाने का रास्ता है। इस शंख को समुद्र तट पर फूँकने के बाद उन्हें समुद्र देव के दर्शन होंगे और वही उन्हें राजा बलि तक पहुँचने का मार्ग बतलाएँगे। शंख देकर विष्णु अंतध्र्यान हो गए। विष्णु के दर्शन के बाद विक्रम ने फिर से तपस्या के पहले वाला स्वास्थ्य प्राप्त कर लिया और वैसी ही असीम शक्ति प्राप्त कर ली। शंख लेकर वे समुद्र के पास आए और पूरी शक्ति से शंख फूँकने लगे। समुद्र देव उपस्थित हुए और समुद्र का पानी दो भागों में विभक्त हो गया। समुद्र के बीचों-बीच अब भूमि मार्ग दिखाई देने लगा। उस मार्ग पर राजा आगे बढ़ते रहे। काफी चलने के बाद वे पाताल लोक पहुँच गए। जब वे राजा बलि के महल के द्वार पर पहुँचे तो द्वारापालों ने उनसे आने का प्रयोजन पूछा। विक्रम ने उन्हें बताया कि राजा बलि के दर्शन के लिए मृत्युलोक के यहाँ आए हैं। एक सैनिक उनका संदेश लेकर गया और काफी देर बाद उनसे आकर बोला कि राजा बलि अभी उनसे नहीं मिल सकते हैं। उन्होंने बार-बार राजा से मिलने का अनुरोध किया पर राजा बलि तैयार नहीं हुए। राजा ने खिन्न और हताश होकर अपनी तलवार से अपना सर काट लिया। जब प्रहरियों ने यह खबर राजा बलि को दी तो उन्होंने अमृत डलवाकर विक्रम को जीवित करवा दिया। जीवित होते ही विक्रम ने फिर राजा बलि के दर्शन की इच्छा जताई। इस बार प्रहरी संदेश लेकर लौटा कि राजा बलि उनसे महा शिवरात्रि के दिन मिलेंगे। विक्रम को लगा कि बलि ने सिर्फ़े टालने के लिए यह संदेश भिजवाया है। उनके दिल पर चोट लगी और उन्होंने फिर तलवार से अपनी गर्दन काट ली। प्रहरियों में खलबली सच गई और उन्होंने राजा बलि तक विक्रम के बलिदान की खबर पहुँचाई। राजा बलि समझ गए कि वह व्यक्ति दृढ़ निश्चयी है और बिना भेंट किए जानेवाला नहीं है। उन्होंने फिर नौकरों द्वारा अमृत भिजवाया और उनके लिए संदेश भिजवाया कि भेंट करने को वे राज़ी हैं। नौकरों ने अमृत छिड़ककर उन्हें जीवित किया तथा महल में चलकर बलि से भेट करने को कहा। जब वे राजा बलि से मिले तो राजा बलि ने उनसे इतना कष्ट उठाकर आने का कारण पूछा। विक्रम ने कहा कि धार्मिक ग्रन्थों में उनके बारे में बहुत कुछ वर्णित है तथा उनकी दानवीरता और त्याग की चर्चा सर्वत्र होती है, इसलिए वे उनसे मिलने को उत्सुक थे। राजा बलि उनसे बहुत प्रसन्न हुए तथा विक्रम को एक लाल मूंगा उपहार में दिया और बोले कि वह मूंगा माँगने पर हर वस्तु दे सकता है। मूंगे के बल पर असंभव कार्य भी संभव हो सकते हैं। विक्रम राजा बलि से विदा लेकर प्रसन्न चित्त होकर मृत्युलोक की ओर लौट चले। पाताल लोक के प्रवेश द्वार के बाहर फिर वही अनन्त गहराई वाला समुद्र बह रहा था। उन्होंने भगवान विष्णु का दिया हुआ शंख फूँका तो समुद्र फिर से दो भागों में बँट गया और उसके बीचों-बीच वही भूमिवाला मार्ग प्रकट हो गया। उस भूमि मार्ग पर चलकर वे समुद्र तट तक पहुँच गये। वह मार्ग गायब हो गया तथा समुद्र फिर पूर्ववत होकर बहने लगा। वे अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक स्री विलाप करती मिली। उसके बाल बिखरे हुए थे और चेहरे पर गहरे विषाद के भाव थे। पास आने पर पता चला कि उसके पति की मृत्यु हो गई है और अब वह बिल्कुल बेसहारा है। विक्रम का दिल उसके दुख को देखकर पसीज गया तथा उन्होंने उसे सांत्वना दी। बलि वाले मूंगे से उसके लिए जीवन दान माँगा। उनका बोलना था कि उस विधवा का मृत पति ऐसे उठकर बैठ गया मानो गहरी नींद से जागा हो। स्री के आनन्द की सीमा नहीं रही।…
मृगनयनी मृगनयनी नामक छब्बीसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य न सिर्फ अपना राजकाज पूरे मनोयोग से चलाते थे, बल्कि त्याग, दानवीरता, दया, वीरता इत्यादि अनेक श्रेष्ठ गुणों के धनी थे। वे किसी तपस्वी की भाँति अन्न-जल का त्याग कर लम्बे समय तक तपस्या में लीन रहे सकते थे। ऐसा कठोर तप कर सकते थे कि इन्द्रासन डोल जाए। एक बार उनके दरबार में एक साधारण सी वेशभूषा वाले एक युवक को पकड़कर उनके सैनिक लाए। वह रात में बहुत सारे धन के साथ संदिग्ध अवस्था में कहीं जा रहा था। उसकी वेशभूषा से नहीं लग रहा था कि इस धन का वह मालिक होगा, इसलिए सिपाहियों को लगा शायद वह चोर हो और चोरी के धन के साथ कहीं चंपत होने की फिराक में हो। राजा ने जब उस युवक से उसका परिचय पूछा और जानना चाहा कि यह धन उसके पास कैसे आया तो उस युवक ने बताया कि वह एक धनाठ्य स्री के यहाँ नौकर है और सारा धन उसी स्री का दिया हुआ है। अब राजा की जिज्ञासा बढ़ गई और उन्होंने जानना चाहा कि उस स्री ने उसे यह धन क्यों दिया और वह धन लेकर कहाँ जा रहा था। इस पर वह युवक बोला कि अमुक जगह रुक कर स्री ने प्रतीक्षा करने को कहा था। दरअसल उस स्री के उससे अनैतिक सम्बन्ध हैं और वह उससे पति की हत्या करके आकर मिलनेवाली थी। दोनों सारा धन लेकर कहीं दूर चले जाते और आराम से जीवन व्यतीत करते। विक्रम ने उसकी बातों की सत्यता की जाँच करने के लिए तुरन्त उसके बताये पते पर अपने सिपाहियों को भेजा। सिपाहियों ने आकर खबर दी कि उस स्री को अपने नौकर के गिरफ्तार होने की सूचना मिल चुकी है। अब वह विलाप करके कह रही है कि लुटेरों ने सारा धन लूट लिया और उसके पति की हत्या करके भाग गए। उसने पति की चिंता सजवाई है और खुद को पतिव्रता साबित करने के लिए सती होने की योजना बना रही है। सुबह युवक को साथ लेकर सिपाहियों के साथ विक्रम उस स्री के घर पहुँचे तो दृश्य देखकर सचमुच चौंक गए। स्री अपने पति की चिता पर बैठ चुकी थी और चिता को अग्नि लगने वाली थी। राजा ने चिता को अग्नि देने वाले को रोक दिया तथा उस स्री से चिता से उतरने को कहा। उन्होंने सारा धन उसे दिखाया तथा नौकर को आगे लाकर बोले कि सारी सच्चाई का पता उन्हें चल गया है। उन्होंने उस स्री को त्रिया चरित्र का त्याग करने को कहा तथा राजदण्ड भुगतने को तैयार हो जाने की आज्ञा दी। स्री कुछ क्षणों के लिए तो भयभीत हुई, मगर दूसरे ही पल बोली कि राजा को उसके चरित्र पर ऊँगली उठाने के पहले अपनी छोटी रानी के चरित्र की जाँच करनी चाहिए। इतना कहकर वह बिजली सी फुर्ती से चिता पर कूदी और उसमें आग लगाकर सती हो गई। कोई कुछ करता वह स्री जलकर राख हो गई। राजा सिपाहियों सहित अपने महल वापस लौट गए। उन्हें उस स्री के अंतिम शब्द अभी तक जला रहे थे। उन्होंने छोटी रानी पर निगाह रखनी शुरु कर दी। एक रात उन्हें सोता समझकर छोटी रानी उठी और पिछले दरवाजे से महल से बाहर निकल गई। राजा भी दबे पाँव उसका पीछा करने लगे। चलकर वह कुछ दूर पर धूनी रमाए एक साधु के पास गई। साधु ने उसे देखा तो उठ गया और उसे लेकर पास बनी एक कुटिया के अन्दर दोनों चले गए। विक्रम ने कुटिया में जो देखा वह उनके लिए असहनीय था। रानी निर्वस्र होकर उस साधु का आलिंगन करने लगी तथा दोनों पति-पत्नी की तरह बेझिझक संभोगरत हो गए। राजा ने सोचा कि छोटी रानी को वे इतना प्यार करते हैं फिर भी वह विश्वासघात कर रही है। उनका क्रोध सीमा पार कर गया और उन्होंने कुटिया में घुसकर उस साधु तथा छोटी रानी को मौत के घाट उतार दिया। जब वे महल लौटे तो उनकी मानसिक शांति जा चुकी थी। वे हमेशा बेचैन तथा खिन्न रहने लगे। सांसारिक सुखों से उनका मन उचाट हो गया तथा मन में वैराग्य की भावना ने जन्म ले लिया। उन्हें लगता था कि उनके धर्म-कर्म में ज़रुर कोई कमी थी जिसके कारण भगवान ने उन्हें छोटी रानी के विश्वासघात का दृश्य दिखाकर दण्डित किया। यही सब सोचकर उन्होंने राज-पाट का भार अपने मंत्रियों को सौंप दिया और खुद समुद्र तट पर तपस्या करने को चल पड़े। समुद्र तट पर पहुँचकर उन्होंने सबसे पहले एक पैर पर खड़े होकर समुद्र देवता का आह्मवान किया। उनकी साधना से प्रसन्न होकर जब समुद्र देवता ने उन्हें दर्शन दिए तो उन्होंने समुद्र देवता से एक छोटी सी मांग पूरी करने की विनती की। उन्होंने कहा कि उनके तट पर वे एक कुटिया बनाकर अखण्ड साधना करना चाहते हैं और अपनी साधना निर्विघ्न पूरा करने का उनसे आशीर्वाद चाहते हैं। समुद्र देवता ने उन्हें अपना आशीर्वाद दिया तथा उन्हें एक शंख प्रदान किया। समुद्र देवता ने कहा कि जब भी कोई दैवीय विपत्ति आएगी इस शंख की ध्वनि से दूर हो जाएगा। समुद्र देव से उपहार लेकर विक्रम ने उन्हें धन्यवाद दिया तथा प्रणाम कर समुद्र तट पर लौट आए। उन्होंने समुद्र तट पर एक कुटिया बनाई और साधना करने लगे। उन्होंने लम्बे समय तक इतनी कठिन साधना की कि देव लोक में हड़कम्प सच गया। सारे देवता बात करने लगे कि अगर विक्रम इसी प्रकार साधना में लीन रहे तो इन्द्र के सिंहासन पर अधिकार कर लेंगे। इन्द्र को अपना सिंहासन खतरे में दिखाई देने लगा। उन्होंने अपने सहयोगियों को साधना स्थल के पास इतनी अधिक वृष्टि करने का आदेश दिया कि पूरा स्थान जलमग्न हो जाए और विक्रम कुटिया सहित पानी में बह जाएँ। बस आदेश की देर थी। बहुत भयानक वृष्टि शुरु हो गई। कुछ ही घण्टों में सचमुच सारा स्थान जलमग्न हो जाता और विक्रम कुटिया सहित जल में समा गए होते। लेकिन समुद्र देव ने उन्हें आशीर्वाद जो दिया था। उस वर्षा का सारा पानी उन्होंने पी लिया तथा साधना स्थल पहले की भाँति सूखा ही रहा। इन्द्र ने जब यह अद्भुत चमत्कार देखा तो उनकी चिन्ता और बढ़ गई. उन्होंने अपने सेवकों को बुलाकर आँधी-तूफान का सहारा लेने का आदेश दिया। इतने भयानक वेग से आँधी चली कि कुटिया तिनके-तिनके होकर बिखर गई। सब कुछ हवा में रुई की भाँति उड़ने लगा। बड़े-बड़े वृक्ष उखड़कर गिरने लगे। विक्रम के पाँव भी उखड़ते हुए मालूम पड़े। लगा कि आँधी उन्हें उड़ाकर साधना स्थल से बहुत दूर फेंक देगी। विक्रम को समुद्र देव द्वारा दिया गया शंख याद आया और उन्होंने शंख को ज़ोर से फूंका। शंख से बड़ी तीव्र ध्वनि निकली। शंख ध्वनि के साथ आँधी-तूफान का पता नहीं रहा। वहाँ ऐसी शान्ति छा गई मानो कभी आँधी आई ही न हो। अब तो इन्द्र देव की चिन्ता और अधिक बढ़ गई। उन्हें सूझ नहीं रहा था कि विक्रम की साधना कैसे भंग की जाए। अब विक्रम की सधना को केवल अप्सराओं का आकर्षण ही भंग कर सकता था। उन्होंने तिलोत्तमा नामक अप्सरा को बुलाया तथा उसे जाकर विक्रम की साधना भंग करने को कहा। तिलोत्तमा अनुपम सुन्दरी थी और उसका रुप देखकर कोई भी कामदेव के वाणों से घायल हुए बिना नहीं रह सकता था। तिलोत्तमा साधना स्थल पर उतरी तथा मनमोहक गायन-वादन और नृत्य द्वारा विक्रम की साधना में विघ्न डालने की चेष्टा करने लगी। मगर वैरागी विक्रम का क्या बिगाड़ पाती। विक्रम ने शंख को फूँक मारी और तिलोत्तमा को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसे आग की ज्वाला में ला पटका हो। भयानक ताप से वह उद्विग्न हो उठी तथा वहाँ से उसी क्षण अदृश्य हो गई। जब यह युक्ति भी कारगर नहीं हुई तो इन्द्र का आत्मविश्वास पूरी तरह डोल गया। उन्होंने खुद ब्राह्मण का वेश धरा और साधना स्थल आए। वे जानते थे कि विक्रम याचको को कभी निराश नहीं करते हैं तथा सामर्थ्यानुसार दान देते हैं। जब इन्द्र विक्रम के पास वे पहुँचे तो विक्रम ने उनके आने का प्रयोजन पूछा। उन्होंने विक्रम से भिक्षा देने को कहा तथा भिक्षा के रुप में उनकी कठिन साधना का सारा फल मांग लिया। विक्रम ने अपनी साधना का सारा फल उन्हें सहर्ष दान कर दिया। साधना फल दान क्या था- इन्द्र को अभयदान मिल गया। उन्होंने प्रकट होकर विक्रम की महानता का गुणगान किया और आशीर्वाद दिया। उन्होंने कहा कि विक्रम के राज्य में अतिवृष्टि और अनावृष्टि नहीं होगी। कभी अकाल या सूखा नहीं पड़ेगा सारी फसलें समय पर और भरपूर होंगी। इतना कहकर इन्द्र अन्तध्र्यान हो गए।…
त्रिनेत्री त्रिनेत्री नामक पच्चीसवीं पुतली की कथा इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा के सुख दुख का पता लगाने के लिए कभी-कभी वेश बदलकर घूमा करते थे तथा खुद सारी समस्या का पता लगाकर निदान करते थे। उनके राज्य में एक दरिद्र ब्राह्मण और भाट रहते थे। वे दोनों अपना कष्ट अपने तक ही सीमित रखते हुए जीवन-यापन कर रहे थे तथा कभी किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं रखते थे। वे अपनी गरीबी को अपना प्रारब्ध समझकर सदा खुश रहते थे तथा सीमित आय से संतुष्ट थे। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, मगर जब भाट की बेटी विवाह योग्य हुई तो भाट की पत्नी को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी। उसने अपने पति से कहा कि वह पुश्तैनी पेशे से जो कमाकर लाता है उससे दैनिक खर्च तो आराम से चल जाता है, मगर बेटी के विवाह के लिए कुछ भी नहीं बच पाता है। बेटी के विवाह में बहुत खर्च आता है, अत: उसे कोई और यत्न करना होगा। भाट यह सुनकर हँस पड़ा और कहने लगा कि बेटी उसे भगवान की इच्छा से प्राप्त हुई है, इसलिए उसके विवाह के लिए भगवान कोई रास्ता निकाल ही देंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो हर दम्पत्ति को केवल पुत्र की ही प्राप्ति होती या कोई दम्पति संतानहीन न रहते। सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है। दिन बीतते गए, पर भाट को बेटी के विवाह में खर्च लायक धन नहीं मिल सका। उसकी पत्नी अब दुखी रहने लगी। भाट से उसका दुख नहीं देखा गया तो वह एक दिन धन इकट्ठा करने की नीयत से निकल पड़ा। कई राज्यों का भ्रमण कर उसने सैकड़ों राज्याधिकारियों तथा बड़े-बड़े सेठों को हँसाकर उनका मनोरंजन किया तथा उनकी प्रशंसा में गीत गाए। खुश होकर उन लोगों ने जो पुरस्कार दिए उससे बेटी के विवाह लायक धन हो गया। जब वह सारा धन लेकर लौट रहा था तो रास्ते में न जाने चोरों को कैसे उसके धन की भनक लग गई। उन्होंने सारा धन लूट लिया। अब तो भाट का विश्वास भगवान पर और चाहेंगे उसके पास बेटी के ब्याह के लिए धन नहीं होगा। वह जब लौटकर घर आया तो उसकी पत्नी को आशा थी कि वह ब्याह के लिए उचित धन लाया होगा। भाट की पत्नी को बताया कि उसके बार-बार कहने पर वह विवाह के लिए धन अर्जित करने को कई प्रदेश गया और तरह-तरह को लोगों से मिला। लोगों से पर्याप्त धन भी एकत्र कर लाया पर भगवान को उस धन से उसकी बेटी का विवाह होना मंजूर नहीं था। रास्ते में सारा धन लुटेरों ने लूट लिया और किसी तरह प्राण बचाकर वह वापस लौट आया है। भाट की पत्नी गहरी चिन्ता में डूब गई। उसने पति से पूछा कि अब बेटी का ब्याह कैसे होगा। भाट ने फिर अपनी बात दुहराई कि जिसने बेटी दी है वही ईश्वर उसके विवाह की व्यवस्था भी कर देगा। इस पर उसकी पत्नी निराशा भरी खीझ के साथ बोली कि ईश्वर लगता है महाराजा विक्रम को विवाह की व्यवस्था करने भेजेंगे। जब यह वार्तालाप हो रहा था तभी महाराज उसके घर के पास से गुज़र रहे थे। उन्हें भाट की पत्नी की टिप्पणी पर हँसी आ गई। दूसरी तरफ ब्राह्मण अपनी आजीविका के लिए पुश्तैनी पेशा अपनाकर जैसे-तैसे गुज़र-बसर कर रहा था। वह पूजा-पाठ करवाकर जो कुछ भी दक्षिणा के रुप में प्राप्त करता उसी से आनन्दपूर्वक निर्वाह कर रहा था। ब्राह्मणी को भी तब तक सब कुछ सामान्य दिख पड़ा जब तक कि उनकी बेटी विवाह योग्य नहीं हुई। बेटी के विवाह की चिन्ता जब सताने लगी तो उसने ब्राह्मण को कुछ धन जमा करने को कहा।मगर ब्राह्मण चाहकर भी नहीं कर पाया। पत्नी के बार-बार याद दिलाने पर उसने अपने यजमानों को घुमा फिरा कर कहा भी, मगर किसी यजमान ने उसकी बात को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया। एक दिन ब्राह्मणी तंग आकर बोली कि विवाह खर्च महाराजा विक्रमादित्य से मांगकर देखो, क्योंकि अब और कोई विकल्प नहीं है। कन्यादान तो करना ही है। ब्राह्मण ने कहा कि वह महाराज के पास ज़रुर जाएगा। महाराज धन दान करेंगे तो सारी व्यवस्था हो जाएगी। उसकी भी पत्नी के साथ पूरी बातचीत विक्रम ने सुन ली, क्योंकि उसी समय वे उसके घर के पास गुज़र रहे थे। सुबह में उन्होंने सिपाहियों को भेजा और भाट तथा ब्राह्मण दोनों को दरबार में बुलवाया। विक्रमादित्य ने अपने हाथों से भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान की। फिर ब्राह्मण को राजकोष से कुछ सौ मुद्राएँ दिलवा दी। वे दोनों अति प्रसन्न हो वहाँ से विदा हो गए। जब वे चले गए तो एक दरबारी ने महाराज से कुछ कहने की अनुमति मांगी। उसने जिज्ञासा की कि भाट और ब्राह्मण दोनों कन्या दान के लिए धन चाहते थे तो महाराज ने पक्षपात क्यों किया। भाट को दस लाख और ब्राह्मण को सिर्फ कुछ सौ स्वर्ण मुद्राएँ क्यों दी। विक्रम ने जवाब दिया कि भाट धन के लिए उनके आसरे पर नहीं बैठा था। वह ईश्वर से आस लगाये बैठा था। ईश्वर लोगों को कुछ भी दे सकते हैं, इसलिए उन्होंने उसे ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर अप्रत्याशित दान दिया, जबकि ब्राह्मण कुलीन वंश का होते हुए भी ईश्वर में पूरी आस्था नहीं रखता था। वह उनसे सहायता की अपेक्षा रखता था। राजा भी आ मनुष्य है, ईश्वर का स्थान नहीं ले सकता। उन्होंने उसे उतना ही धन दिया जितने में विवाह अच्छी तरह संपन्न हो जाए। राजा का ऐसा गूढ़ उत्तर सुनकर दरबारी ने मन ही मन उनकी प्रशंसा की तथा चुप हो गया।…
धर्मवती तेइसवीं पुतली जिसका नाम धर्मवती था, ने इस प्रकार कथा कही- एक बार राजा विक्रमादित्य दरबार में बैठे थे और दरबारियों से बातचीत कर रहे थे। बातचीत के क्रम में दरबारियों में इस बात पर बहस छिड़ गई कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है या कर्म से। बहस का अन्त नहीं हो रहा था, क्योंकि दरबारियों के दो गुट हो चुके थे। एक कहता था कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है क्योंकि मनुष्य का जन्म उसके पूर्वजन्मों का फल होता है। अच्छे संस्कार मनुष्य में वंशानुगत होते हैं जैसे राजा का बेटा राजा हो जाता है। उसका व्यवहार भी राजाओं की तरह रहता है। कुछ दरबारियों का मत था कि कर्म ही प्रधान है। अच्छे कुल में जन्मे व्यक्ति भी दुर्व्यसनों के आदी हो जाते हैं और मर्यादा के विरुद्ध कर्मों में लीन होकर पतन की ओर चले जाते हैं। अपने दुष्कर्मों और दुराचार के चलते कोई सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं करते और सर्वत्र तिरस्कार पाते हैं। इस पर पहले गुट ने तर्क दिया कि मूल संस्कार नष्ट नहीं हो सकते हैं जैसे कमल का पौधा कीचड़ में रहकर भी अपने गुण नहीं खोता। गुलाब काँटों पर पैदा होकर भी अपनी सुगन्ध नहीं खोता और चन्दन के वृक्ष पर सर्पों का वास होने से भी चन्दन अपनी सुगन्घ और शीतलता बरकरार रखता है, कभी भी विषैला नहीं होता। दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों द्वारा अपने को सही सिद्ध करने की कोशिश करते रहे। कोई भी अपना विचार बदलने को राज़ी नहीं था। विक्रम चुपचाप उनकी बहस का मज़ा ले रहे थे। जब उनकी बहस बहुत आगे बढ़ गई तो राजा ने उन्हें शान्त रहने का आदेश दिया और कहा कि वे प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा करेंगे। उन्होंने आदेश दिया कि जंगल से एक सिंह का बच्चा पकड़कर लाया जाए। तुरन्त कुछ शिकारी जंगल गए और एक सिंह का नवजात शावक उठाकर ले आए। उन्होंने एक गड़ेरिये को बुलाया और उस नवजात शावक को बकरी के बच्चों के साथ-साथ पालने को कहा। गड़ेरिये की समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन राजा का आदेश मानकर वह शाषक को ले गया। शावक की परवरिश बकरी के बच्चों के साथ होने लगी। वह भी भूख मिटाने के लिए बकरियों का दूध पीने लगा जब बकरी के बच्चे बड़ हुए तो घास और पत्तियाँ चरने लगे। शावक भी पत्तियाँ बड़े चाव से खाता। कुछ और बड़ा होने पर दूध तो वह पीता रहा, मगर घास और पत्तियाँ चाहकर भी नहीं खा पाता। एक दिन जब विक्रम ने उसे शावक का हाल बताने के लिए बुलाया तो उसने उन्हें बताया कि शेर का बच्चा एकदम बकरियों की तरह व्यवहार करता है। उसने राजा से विनती की कि उसे शावक को मांस खिलाने की अनुमति दी जाए, क्योंकि शावक को अब घास और पत्तियाँ अच्छी नहीं लगती हैं। विक्रम ने साफ़ मना कर दिया और कहा कि सिर्फ दूध पर उसका पालन पोषण किया जाए। गड़ेरिया उलझन में पड़ गया। उसकी समझ में नहीं आया कि महाराज एक मांसभक्षी प्राणी को शाकाहारी बनाने पर क्यों तुले हैं। वह घर लौट आया। शावक जो कि अब जवान होने लगा था सारा दिन बकरियों के साथ रहता और दूध पीता। कभी-कभी बहुत अधिक भूख लगने पर घास-पत्तियाँ भी खा लेता। अन्य बकरियों की तरह जब शाम में उसे दरबे की तरफ हाँका जाता तो चुपचाप सर झुकाए बढ़ जाता तथा बन्द होने पर कोई प्रतिरोध नहीं करता। एक दिन जब वह अन्य बकरियों के साथ चर रहा था तो पिंजरे में बन्द एक सिंह को लाया गया। सिंह को देखते ही सारी बकरियाँ डरकर भागने लगीं तो वह भी उनके साथ दुम दबाकर भाग गया। उसके बाद राजा ने गड़ेरियें को उसे स्वतंत्र रुप से रखने को कहा। भूख लगने पर उसने खरगोश का शिकार किया और अपनी भूख मिटाई। कुछ दिन स्वतंत्र रुप से रहने पर वह छोटे-छोटे जानवरों को मारकर खाने लगा। लेकिन गड़ेरिये के कहने पर पिंजरे में शान्तिपूर्वक बन्द हो जाता। कुछ दिनों बाद उसका बकरियों की तरह भीरु स्वभाव जाता रहा। एक दिन जब फिर से उसी शेर को जब उसके सामने लाया गया तो वह डरकर नहीं भागा। शेर की दहाड़ उसने सुनी तो वह भी पूरे स्वर से दहाड़ा। राजा अपने दरबारियों के साथ सब कुछ गौर से देख रहे थे। उन्होंने दरबारियों को कहा कि इन्सान में मूल प्रवृतियाँ शेर के बच्चे की तरह ही जन्म से होती हैं। अवसर पाकर वे प्रवृतियाँ स्वत: उजागर हो जाती हैं जैसे कि इस शावक के साथ हुआ। बकरियों के साथ रहते हुए उसकी सिंह वाली प्रवृति छिप गई थी, मगर स्वतंत्र रुप से विचरण करने पर अपने-आप प्रकट हो गई। उसे यह सब किसी ने नहीं सिखाया। लेकिन मनुष्य का सम्मान कर्म के अनुसार किया जाना चाहिए। सभी सहमत हो गए, मगर एक मन्त्री राजा की बातों से सहमत नहीं हुआ। उसका मानना था कि विक्रम राजकुल में पैदा होने के कारण ही राजा हुए अन्यथा सात जन्मों तक कर्म करने के बाद भी राजा नहीं होते। राजा मुस्कराकर रह गए। समय बीतता रहा। एक दिन उनके दरबार में एक नाविक सुन्दर फूल लेकर उपस्थित हुआ। फूल सचमुच विलक्षण था और लोगों ने पहली बार इतना सुन्दर लाल फूल देखा था। राजा फूल के उद्गम स्थल का पता लगाने भेज दिया। वे दोनों उस दिशा में नाव से बढ़ते गए जिधर से फूल बहकर आया था। नदी की धारा कहीं अत्यधिक सँकरी और तीव्र हो जाती थी, कहीं चट्टानों के ऊपर से बहती थी। काफी दुर्गम रास्ता था। बहते-बहते नाव उस जगह पहुँची जहाँ किनारे पर एक अद्भुत दृश्य था। एक बड़े पेड़ पर जंज़ीरों की रगड़ से उसके शरीर पर कई गहरे घाव बन गए थे। उन घावों से रक्त चू रहा था जो नदी में गिरते ही रक्तवर्ण पुष्पों में बदल जाता था। कुछ दूरी पर ही कुछ साधु बैठे तपस्या में लीन थे। जब वे कुछ और फूल लेकर दरबार में वापस लौटे तो मंत्री ने राजा को सब कुछ बताया। तब विक्रम ने उसे समझाया कि उस उलटे लटके योगी को राजा समझो और अन्य साधनारत सन्यासी उसके दरबारी हुए। पूर्वजन्म का यह कर्म उन्हें राजा या दरबारी बनाता है। अब मन्त्री को राजा की बात समझ में आ गई। उसने मान लिया कि पूर्वजन्म के कर्म के फल के रुप में ही किसी को राजगद्दी मिलती है।…
अनुरोधवती अनुरोधवती नामक बाइसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य अद्भुत गुणग्राही थे। वे सच्चे कलाकारों का बहुत अधिक सम्मान करते थे तथा स्पष्टवादिता पसंद करते थे। उनके दरबार में योग्यता का सम्मान किया जाता था। चापलूसी जैसे दुर्गुण की उनके यहाँ कोई कद्र नहीं थी। यही सुनकर एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके द्वार तक आ पहुँचा। दरबार में महफिल सजी हुई थी और संगीत का दौर चल रहा था। वह युवक द्वार पर राजा की अनुमति का इंतज़ार करने लगा। वह युवक बहुत ही गुणी था। बहुत सारे शास्रों का ज्ञाता था। कई राज्यों में नौकरी कर चुका था। स्पष्टवक्ता होने के कारण उसके आश्रयदाताओं को वह धृष्ट नज़र आया, अत: हर जगह उसे नौकरी से निकाल दिया गया। इतनी ठोकरे खाने के बाद भी उसकी प्रकृति तथा व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आ सका। वह द्वार पर खड़ा था तभी उसके कान में वादन का स्वर पड़ा और वह बड़बड़ाया- "महफिल में बैठे हुए लोग मूर्ख हैं। संगीत का आनन्द उठा रहे है, मगर संगीत का जरा भी ज्ञान नहीं है। साज़िन्दा गलत राग बजाए जा रहा है, लेकिन कोई भी उसे मना नहीं कर रहा है।" उसकी बड़बड़ाहट द्वारपाल को स्पष्ट सुनाई पड़ी। उसका चेहरा क्रोध से लाल हो गया। उसने उसको सम्भालकर टिप्पणी करने को कहा। उसने जब उस युवक को कहा कि महाराज विक्रमादित्य खुद महफिल में बैठे है और वे बहुत बड़े कला पारखी है तो युवक ने उपहास किया। उसने द्वारपाल को कहा कि वे कला प्रेमी हो सकते हैं, मगर कला पारखी नहीं, क्योंकि साजिन्दे का दोषपूर्ण वादन उनकी समझ में नहीं आ रहा है। उस युवक ने यह भी बता दिया कि वह साज़िन्दा किस तरफ बैठा हुआ है। अब द्वारपाल से नहीं रहा गया। उसने उस युवक से कहा कि उसे राजदण्ड मिलेगा, अगर उसकी बात सच साबित नहीं हुई। उस युवक ने उसे सच्चाई का पता लगाने के लिए कहा तथा बड़े ही आत्मविश्वास से कहा कि वह हर दण्ड भुगतने को तैयार है अगर यह बात सच नहीं साबित हुई। द्वारपाल अन्दर गया तथा राजा के कानों तक यह बात पहुँची। विक्रम ने तुरन्त आदेश किया कि वह युवक महफिल में पेश किया जाए। विक्रम के सामने भी उस युवक ने एक दिशा में इशारा करके कहा कि वहाँ एक वादक की ऊँगली दोषपूर्ण है। उस ओर बैठे सारे वादकों की ऊँगलियों का निरीक्षण किया जाने लगा। सचमुच एक वादक के अँगूठे का ऊपरी भाग कटा हुआ था और उसने उस अँगूठे पर पतली खाल चढ़ा रखी थी। राजा उस युवक के संगीत ज्ञान के कायल हो गए। तब उन्होंने उस युवक से उसका परिचय प्राप्त किया और अपने दरबार में उचित सम्मान देकर रख लिया। वह युवक सचमुच ही बड़ा ज्ञानी और कला मर्मज्ञ था। उसने समय-समय पर अपनी योग्यता का परिचय देकर राजा का दिल जीत लिया। एक दिन दरबार में एक अत्यंत रुपवती नर्त्तकी आई। उसके नृत्य का आयोजन हुआ और कुछ ही क्षणों में महफिल सज गई। वह युवक भी दरबारियों के बीच बैठा हुआ नृत्य और संगीत का आनन्द उठाने लगा। वह नर्त्तकी बहुत ही सधा हुआ नृत्य प्रस्तुत कर रही थी और दर्शक मुग्ध होकर रसास्वादन कर रहे थे। तभी न जाने कहाँ से एक भंवरा आ कर उसके वक्ष पर बैठ गया। नर्त्तकी नृत्य नहीं रोक सकती थी और न ही अपने हाथों से भंवरे को हटा सकती थी, क्योंकि भंगिमाएँ गड़बड़ हो जातीं। उसने बड़ी चतुरता से साँस अन्दर की ओर खींची तथा पूरे वेग से भंवरे पर छोड़ दी। अनायास निकले साँस के झौंके से भंवरा डर कर उड़ गया। क्षण भर की इस घटना को कोई भी न ताड़ सका, मगर उस युवक की आँखों ने सब कुछ देख लिया। वह "वाह! वाह!" करते उठा और अपने गले की मोतियों की माला उस नर्त्तकी के गले में डाल दी। सारे दरबारी स्तब्ध रह गए। अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा हो गई। राजा की उपस्थिति में दरबार में किसी और के द्वारा कोई पुरस्कार दिया जाना राजा का सबसे बड़ा अपमान माना जाता था। विक्रम को भी यह पसंद नहीं आया और उन्होंने उस युवक को इस धृष्टता के लिए कोई ठोस कारण देने को कहा। तब युवक ने राजा को भंवरे वाली सारी घटना बता दी। उसने कहा कि बिना नृत्य की एक भई भंगिमा को नष्ट किए, लय ताल के साथ सामंजस्य रखते हुए इस नर्त्तकी ने जिस सफ़ाई से भंवरे को उड़ाया वह पुरस्कार योग्य चेष्टा थी। उसे छोड़कर किसी और का ध्यान गया ही नहीं तो पुरस्कार कैसे मिलता। विक्रम ने नर्त्तकी से पूछा तो उसने उस युवक की बातों का समर्थन किया। विक्रम का क्रोध गायब हो गया और उन्होंने नर्त्तकी तथा उस युवक- दोनों की बहुत तारीफ की। अब उनकी नज़र में उस युवक का महत्व और बढ़ गया। जब भी कोई समाधान ढूँढना रहता उसकी बातों को ध्यान से सुना जाता तथा उसके परामर्श को गंभीरतापूर्वक लिया जाता। एक बार दरबार में बुद्धि और संस्कार पर चर्चा छिड़ी। दरबारियों का कहना था कि संस्कार बुद्धि से आते है, पर वह युवक उनसे सहमत नहीं था। उसका कहना था कि सारे संस्कार वंशानुगत होते हैं। जब कोई मतैक्य नहीं हुआ तो विक्रम ने एक हल सोचा। उन्होंने नगर से दूर हटकर जंगल में एक महल बनवाया तथा महल में गूंगी और बहरी नौकरानियाँ नियुक्त कीं। एक-एक करके चार नवजात शिशुओं को उस महल में उन नौकरानियों की देखरेख में छोड़ दिया गया। उनमें से एक उनका, एक महामंत्री का, एक कोतवाल का तथा एक ब्राह्मण का पुत्र था। बारह वर्ष पश्चात् जब वे चारों दरबार में पेश किए गए तो विक्रम ने बारी-बारी से उनसे पूछा- "कुशल तो है?" चारों ने अलग-अलग जवाब दिए। राजा के पुत्र ने "सब कुशल है" कहा जबकि महामंत्री के पुत्र ने संसार को नश्वर बताते हुए कहा "आने वाले को जाना है तो कुशलता कैसी?" कोतवाल के पुत्र ने कहा कि चोर चोरी करते है और बदनामी निरपराध की होती है। ऐसी हालत में कुशलता की सोचना बेमानी है। सबसे अन्त में ब्राह्मण पुत्र का जवाब था कि आयु जब दिन-ब-दिन घटती जाती है तो कुशलता कैसी। चारों के जवाबों को सुनकर उस युवक की बातों की सच्चाई सामने आ गई। राजा का पुत्र निश्चिन्त भाव से सब कुछ कुशल मानता था और मंत्री के पुत्र ने तर्कपूर्ण उत्तर दिया। इसी तरह कोतवाल के पुत्र ने न्याय व्यवस्था की चर्चा की, जबकि ब्राह्मण पुत्र ने दार्शनिक उत्तर दिया। सब वंशानुगत संस्कारों के कारण हुआ। सबका पालन पोषण एक वातावरण में हुआ, लेकिन सबके विचारों में अपने संस्कारों के अनुसार भिन्नता आ गई। सभी दरबारियों ने मान लिया कि उस युवक का मानना बिल्कुल सही है।…
चन्द्रज्योति चन्द्रज्योति नामक इक्कीसवीं पुतली की कथा इस प्रकार है- एक बार विक्रमादित्य एक यज्ञ करने की तैयारी कर रहे थे। वे उस यज्ञ में चन्द्र देव को आमन्त्रित करना चाहते थे। चन्द्रदेव को आमन्त्रण देने कौन जाए- इस पर विचार करने लगे। काफी सोच विचार के बाद उन्हें लगा कि महामंत्री ही इस कार्य के लिए सर्वोत्तम रहेंगे। उन्होंने महामंत्री को बुलाकर उनसे विमर्श करना शुरु किया। तभी महामंत्री के घर का एक नौकर वहाँ आकर खड़ा हो गया। महामंत्री ने उसे देखा तो समझ गए कि अवश्य कोई बहुत ही गंभीर बात है अन्यथा वह नौकर उसके पास नहीं आता। उन्होंने राजा से क्षमा मांगी और नौकर से अलग जाकर कुछ पूछा। जब नौकर ने कुछ बताया तो उनका चेहरा उतर गया और वे राजा से विदा लेकर वहाँ से चले गए। महामंत्री के अचानक दुखी और चिन्तित होकर चले जाने पर राजा को लगा कि अवश्य ही महामंत्री को कोई कष्ट है। उन्होंने नौकर से उनके इस तरह जाने का कारण पूछा तो नौकर हिचकिचाया। जब राजा ने आदेश दिया तो वह हाथ जोड़कर बोला कि महामंत्री जी ने मुझे आपसे सच्चाई नहीं बताने को कहा था। उन्होंने कहा था कि सच्चाई जानने के बाद राजा का ध्यान बँट जाएगा और जो यज्ञ होने वाला है उसमें व्यवधान होगा। राजा ने कहा कि महामंत्री उनके बड़े ही स्वामिभक्त सेवक हैं और उनका भी कर्त्तव्य है कि उनके कष्ट का हर संभव निवारण करें। तब नौकर ने बताया कि महामंत्री जी की एकमात्र पुत्री बहुत लम्बे समय से बीमार है। उन्होंने उसकी बीमारी एक से बढ़कर एक वैद्य को दिखाई, पर कोई भी चिकित्सा कारगर नहीं साबित हुई। दुनिया की हर औषधि उसे दी गई, पर उसकी हालत बिगड़ती ही चली गई। अब उसकी हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वह हिल-डुल नहीं सकती और मरणासन्न हो गई है। विक्रमादित्य ने जब यह सुना तो व्याकुल हो गए। उन्होंने राजवैद्य को बुलवाया और जानना चाहा कि उसने महामंत्री की पुत्री की चिकित्सा की है या नही। राजवैद्य ने कहा कि उसकी चिकित्सा केवल ख्वांग बूटी से की जा सकती है। दुनिया की अन्य कोई औषधि कारगर नहीं हो सकती। ख्वांग बूटी एक बहुत ही दुर्लभ औषधि है जिसे ढूँढ़कर लाने में कई महीने लग जाएँगे। राजा विक्रमादित्य ने यह सुनकर कहा- "तुम्हें उस स्थान का पता है जहाँ यह बूटी मिलती है?" राज वैद्य ने बताया कि वह बूटी नीलरत्नगिरि की घाटियों में पाई जाती है लेकिन उस तक पहुँचना बहुत ही कठिन है। रास्ते में भयंकर सपं, बिच्छू तथा हिंसक जानवर भरे बड़े हैं। राजा ने यह सुनकर उससे उस बूटी की पहचान बताने को कहा। राज वैद्य ने बताया कि वह पौधा आधा नीला आधा पीला फूल लिए होता है तथा उसकी पत्तियाँ लाजवन्ती के पत्तों की तरह स्पर्श से सकुचा जाती हैं। विक्रम यज्ञ की बात भूलकर ख्वांग बूटी की खोज में जाने का निर्णय कर बैठे। उन्होंने तुरन्त काली के दिए गए दोनों बेतालों का स्मरण किया। बेताल उन्हें आनन-फानन में नीलरत्नगिरि की ओर ले चले। पहाड़ी पर उन्हें उतारकर बेताल अदृश्य हो गए। राजा घाटियों की ओर बढ़ने लगे। घाटियों में एकदम अंधेरा था। चारों ओर घने जंगल थे। राजा बढ़ते ही रहे। एकाएक उनके कानों में सिंह की दहाड़ पड़ी। वे सम्भल पाते इसके पहले ही सिंह ने उन पर आक्रमण कर दिया। राजा ने बिजली जैसी फुर्ती दिखाकर खुद को तो बचा लिया, मगर सिंह उनकी एक बाँह को घायल करने में कामयाब हो गया। सिंह दुबारा जब उन पर झपटा तो उन्होंने भरपूर प्रहार से उसके प्राण ले लिए। उसे मारकर जब वे आगे बढ़े तो रास्ते पर सैकड़ों विषधर दिखे। विक्रम तनिक भी नहीं घबराए और उन्होंने पत्थरों की वर्षा करके साँपों को रास्ते से हटा दिया। उसके बाद वे आगे की ओर बढ़ चले। रास्ते में एक जगह इन्हें लगा कि वे हवा में तैर रहे है। ध्यान से देखने पर उन्हें एक दैत्याकार अजगर दिखा। वे समझ गए कि अजगर उन्हें अपना ग्रास बना रहा है। ज्योंहि वे अजगर के पेट में पहुँचे कि उन्होंने अपनी तलवार से अजगर का पेट चीर दिया और बाहर आ गए। तब तक गर्मी और थकान से उनका बुरा हाल हो गया। अंधेरा भी घिर आया था। उन्होंने एक वृक्ष पर चढ़कर विश्राम किया। ज्योंहि सुबह हुई वे ख्वांग बूटी की खोज में इधर-उधर घूमने लगे। उसकी खोज में इधर-उधर भटकते न जाने कब शाम हो गई और अंधेरा छा गया। अधीर होकर उन्होंने कहा- "काश, चन्द्रदेव मदद करते!" इतना कहना था कि मानों चमत्कार हो गया। घाटियों में दूध जैसी चाँदनी फैल गई। अन्धकार न जाने कहाँ गायब हो गया। सारी चीज़े ऐसी साफ दिखने लगीं मानो दिन का उजाला हो। थोड़ी दूर बढ़ने पर ही उन्हें ऐसे पौधे की झाड़ी नज़र आई जिस पर आधे नीले आधे पीले फूल लगे थे। उन्होंने पत्तियाँ छूई तो लाजवंती की तरह सकुचा गई। उन्हें संशय नहीं रहा। उन्होंने ख्वांग बूटी का बड़ा-सा हिस्सा काट लिया। वे बूटी लेकर चलने ही वाले थे कि दिन जैसा उजाला हुआ और चन्द्र देव सशरीर उनके सम्मुख आ खड़े हुए। विक्रम ने बड़ी श्रद्धा से उनको प्रणाम किया। चन्द्रदेव ने उन्हें अमृत देते हुए कहा कि अब सिर्फ अमृत ही महामंत्री की पुत्री को जिला सकता है। उनकी परोपकार की भावना से प्रभावित होकर वे खुद अमृत लेकर उपस्थित हुए हैं। उन्होंने जाते-जाते विक्रम को समझाया कि उनके सशरीर यज्ञ में उपस्थित होने से विश्व के अन्य भागों में अंधकार फैल जाएगा, इसलिए वे उनसे अपने यज्ञ में उपस्थित होने की प्रार्थना नहीं करें। उन्होंने विक्रम को यज्ञ अच्छी तरह सम्पन्न कराने का आशीर्वाद दिया और अन्तध्र्यान हो गए। विक्रम ख्वांग बूटी और अमृत लेकर उज्जैन आए। उन्होंने अमृत की बून्दें टपकाकर महामंत्री की बेटी को जीवित किया तथा ख्वांग बूटी जनहीत के लिए रख लिया। चारों ओर उनकी जय-जयकार होने लगी।…
ज्ञानवती बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य सच्चे ज्ञान के बहुत बड़े पारखी थे तथा ज्ञानियों की बहुत कद्र करते थे। उन्होंने अपने दरबार में चुन-चुन कर विद्वानों, पंडितों, लेखकों और कलाकारों को जगह दे रखी थी तथा उनके अनुभव और ज्ञान का भरपूर सम्मान करते थे। एक दिन वे वन में किसी कारण विचरण कर रहे थे तो उनके कानों में दो आदमियों की बातचीत का कुछ अंश पड़ा। उनकी समझ में आ गया कि उनमें से एक ज्योतिषी है तथा उन्होंने चंदन का टीका लगाया और अन्तध्र्यान हो गए। ज्योतिषी अपने दोस्त को बोला- "मैंने ज्योतिष का पूरा ज्ञान अर्जित कर लिया है और अब मैं तुम्हारे भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब कुछ स्पष्ट बता सकता हूँ।" दूसरा उसकी बातों में कोई रुचि न लेता हुआ बोला- "तुम मेरे भूत और वर्तमान से पूरी तरह परिचित हो इसलिए सब कुछ बता सकते हो और अपने भविष्य के बारे में जानने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। अच्छा होता तुम अपना ज्ञान अपने तक ही सीमित रखते।" मगर ज्योतिषी रुकने वाला नहीं था। वह बोला- "इन बिखरी हुई हड्डियों को देख रहे है। मैं इन हड्डियों को देखते हुए बता सकता हूँ कि ये हड्डियाँ किस जानवर की हैं तथा जानवर के साथ क्या-क्या बीता।" लेकिन उसके दोस्त ने फिर भी उसकी बातों में अपनी रुचि नहीं जताई। तभी ज्योतिषी की नज़र ज़मीन पर पड़ी पद चिन्हों पर गई। उसने कहा- "ये पद चिन्ह किसी राजा के हैं और सत्यता की जाँच तुम खुद कर सकते हो। ज्योतिष के अनुसार राजा के पाँवों में ही प्राकृतिक रुप से कमल का चिन्ह होता है जो यहाँ स्पष्ट नज़र आ रहा है।" उसके दोस्त ने सोचा कि सत्यता की जाँच कर ही ली जाए, अन्यथा यह ज्योतिषी बोलता ही रहेगा। पद चिन्हों का अनुसरण करते-करते वे जंगल में अन्दर आते गए। जहाँ पद चिन्ह समाप्त होते थे वहाँ कुल्हाड़ी लिए एक लकड़हारा खड़ा था तथा कुल्हाड़ी से एक पेड़ काट रहा था। ज्योतिषी ने उसे अपने पाँव दिखाने को कहा। लकड़हारे ने अपने पाँव दिखाए तो उसका दिमाग चकरा गया। लकड़हारे के पाँवों पर प्राकृतिक रुप से कमल के चिन्ह थे। ज्योतिषी ने जब उससे उसका असली परिचय पूछा तो वह लकड़हारा बोला कि उसका जन्म ही एक लकड़हारे के घर हुआ है तथा वह कई पुश्तों से यही काम कर रहा है। ज्योतिषी सोच रहा था कि वह राजकुल का है तथा किसी परिस्थितिवश लकड़हारे का काम कर रहा है। अब उसका विश्वास अपने ज्योतिष ज्ञान से उठने लगा। उसका दोस्त उसका उपहास करने लगा तो वह चिढ़कर बोला- "चलो चलकर राजा विक्रमादित्य के पाँव देखते हैं। अगर उनके पाँवों पर कमल चिन्ह नहीं हुआ तो मैं समूचे ज्योतिष शास्र को झूठा समझूंगा और मान लूंगा कि मेरा ज्योतिष अध्ययन बेकार चला गया।" वे लकड़हारे को छोड़ उज्जैन नगरी को चल पड़े। काफी चलने के बाद राजमहल पहुँचे। राजकमल पहुँच कर उन्होंने विक्रमादित्य से मिलने की इच्छा जताई। जब विक्रम सामने आए तो उन्होंने उनसे अपना पैर दिखाने की प्रार्थना की। विक्रम का पैर देखकर ज्योतिषी सन्न रह गया। उनके पाँव भी साधारण मनुष्यों के पाँव जैसे थे। उन पर वैसी ही आड़ी-तिरछी रेखाएँ थीं। कोई कमल चिन्ह नहीं था। ज्योतिषी को अपने ज्योतिष ज्ञान पर नही, बल्कि पूरे ज्योतिष शास्र पर संदेह होने लगा। वह राजा से बोला- "ज्योतिष शास्र कहता है कि कमलचिन्ह जिसके पाँवों में मौजूद हों वह व्यक्ति राजा होगा ही मगर यह सरासर असत्य है। जिसके पाँवों पर मैनें ये चिन्ह देखे वह पुश्तैनी लकड़हारा है। दूर-दूर तक उसका सम्बन्ध किसी राजघराने से नहीं है। पेट भरने के लिए जी तोड़ मेहनत करता है तथा हर सुख-सुविधा से वंचित है। दूसरी ओर आप जैसा चक्रवत्तीं सम्राट है जिसके भाग्य में भोग करने वाली हर चीज़ है। जिसकी कीर्कित्त दूर-दूर तक फैली हुई है। आपको राजाओं का राजा कहा जाता है मगर आपके पाँवों में ऐसा कोई चिन्ह मौजूद नहीं है।" राजा को हँसी आ गई और उन्होंने पूछा- "क्या आपका विश्वास अपने ज्ञान तथा विद्या पर से उठ गया?" ज्योतिषी ने जवाब दिया- "बिल्कुल। मुझे अब रत्ती भर भी विश्वास नहीं रहा।" उसने राजा से नम्रतापूर्वक विदा लेते हुए अपने मित्र से चलने का इशारा किया। जब वह चलने को हुआ तो राजा ने उसे रुकने को कहा। दोनों ठिठक कर रुक गए। विक्रम ने एक चाकू मंगवाया तथा पैरों के तलवों को खुरचने लगे। खुरचने पर तलवों की चमड़ी उतर गई और अन्दर से कमल के चिन्ह स्पष्ट हो गए। ज्योतिषी को हतप्रभ देख विक्रम ने कहा- "हे ज्योतिषी महाराज, आपके ज्ञान में कोई कमी नहीं है। लेकिन आपका ज्ञान तब तक अधूरा रहेगा, जब तक आप अपने ज्ञान की डींगें हाँकेंगे और जब-तब उसकी जाँच करते रहेंगे। मैंने आपकी बातें सुन लीं थीं और मैं ही जंगल में लकड़हारे के वेश में आपसे मिला था। मैंने आपकी विद्वता की जाँच के लिए अपने पाँवों पर खाल चढ़ा ली थी, ताकि कमल की आकृति ढ्ँक जाए। आपने सब कमल की आकृति नहीं देखी तो आपका विश्वास ही अपनी विद्या से उठ गया। यह अच्छी बात नहीं हैं।" ज्योतिषी समझ गया राजा क्या कहना चाहते हैं। उसने तय कर लिया कि वह सच्चे ज्ञान की जाँच के भौंडे तरीकों से बचेगा तथा बड़बोलेपन से परहेज करेगा।…
रुपरेखा रुपरेखा नामक उन्नीसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य के दरबार में लोग अपनी समस्याएँ लेकर न्याय के लिए तो आते ही थे कभी-कभी उन प्रश्नों को लेकर भी उपस्थित होते थे जिनका कोई समाधान उन्हें नहीं सूझता था। विक्रम उन प्रश्नों का ऐसा सटीक हल निकालते थे कि प्रश्नकर्त्ता पूर्ण सन्तुष्ट हो जाता था। ऐसे ही एक टेढ़े प्रश्न को लेकर एक दिन दो तपस्वी दरबार में आए और उन्होंने विक्रम सो अपने प्रश्न का उत्तर देने की विनती की। उनमें से एक का मानना था कि मनुष्य का मन ही उसके सारे क्रिया-कलाप पर नियंत्रण रखता है और मनुष्य कभी भी अपने मन के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता है। दूसरा उसके मत से सहमत नहीं था। उसका कहना था कि मनुष्य का ज्ञान उसके सारे क्रिया-कलाप नियंत्रित करता है। मन भी ज्ञान का दास है और वह भी ज्ञान द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने को बाध्य है। राजा विक्रमादित्य ने उनके विवाद के विषय को गौर से सुना पर तुरन्त उस विषय पर अपना कोई निर्णय नहीं दे पाए। उन्होंने उन दोनों तपस्वियों को कुछ समय बाद आने को कहा। जब वे चले गए तो विक्रम उनके प्रश्न के बारे में सोचने लगे जो सचमुच ही बहुत टेढ़ा था। उन्होंने एक पल सोचा कि मनुष्य का मन सचमुच बहुत चंचल होता है और उसके वशीभूत होकर मनुष्य सांसारिक वासना के अधीन हो जाता है। मगर दूसरे ही पल उन्हें ज्ञान की याद आई। उन्हें लगा कि ज्ञान सचमुच मनुष्य को मन का कहा करने से पहले विचार कर लेने को कहता है और किसी निर्णय के लिए प्रेरित करता है। विक्रम ऐसे उलझे सवालों का जवाब सामान्य लोगों की ज़िन्दगी में खोजते थे, इसलिए वे साधारण नागरिक का वेश बदलकर अपने राज्य में निकल पड़े। उन्हें कई दिनों तक ऐसी कोई बात देखने को नहीं मिली जो प्रश्न को हल करने में सहायता करती। एक दिन उनकी नज़र एक ऐसे नौजवान पर पड़ी जिसके कपड़ों और भावों में उसकी विपन्नता झलकती थी। वह एक पेड़ के नीचे थककर आराम कर रहा था। बगल में एक बैलगाड़ी खड़ी थी जिसकी वह कोचवानी करता था। राजा ने उसके निकट जाकर देखा तो वे उसे एक झलक में ही पहचान गए. वह उनके अभिन्न मित्र सेठ गोपाल दास का छोटा बेटा था। सेठ गोपाल दास बहुत बड़े व्यापारी थे और उन्होंने व्यापार से बहुत धन कमाया था। उनके बेटे की यह दुर्दशा देखकर उनकी जिज्ञासा बढ़ गई। उसकी बदहाली का कारण जानने को उत्सुक हो गये। उन्होंने उससे पूछा कि उसकी यह दशा कैसे हुई जबकि मरते समय गोपाल दास ने अपना सारा धन और व्यापार अपने दोनों पुत्रों में समान रुप से बाँट दिया था। एक के हिस्से का धन इतना था कि दो पुश्तों तक आराम से ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती थी। विक्रम ने फिर उसके भाई के बारे में भी जानने की जिज्ञासा प्रकट की। युवक समझ गया कि पूछने वाला सचमुच उसके परिवार के बारे में सारी जानकारी रखता है। उसने विक्रम को अपने और अपने भाई के बारे में सब कुछ बता दिया। उसने बताया कि जब उसके पिता ने उसके और उसके भाई के बीच सब कुछ बाँट दिया तो उसके भाई ने अपने हिस्से के धन का उपयोग बड़े ही समझदारी से किया। उसने अपनी ज़रुरतों को सीमित रखकर सारा धन व्यापार में लगा दिया और दिन-रात मेहनत करके अपने व्यापार को कई गुणा बढ़ा लिया। अपने बुद्धिमान और संयमी भाई से उसने कोई प्रेरणा नहीं ली और अपने हिस्से में मिले अपार धन को देखकर घमण्ड से चूर हो गए। शराबखोरी, रंडीबाजी जुआ खेलना समेत सारी बुरी आदतें डाल लीं। ये सारी आदतें उसके धन के भण्डार के तेज़ी से खोखला करने लगीं। बड़े भाई ने समय रहते उसे चेत जाने को कहा, लेकिन उसकी बातें उसे विष समान प्रतीत हुईं। ये बुरी आदतें उसे बहुत तेज़ी से बरबादी की तरफ ले गईं और एक वर्ष के अन्दर वह कंगाल हो गया। वह अपने नगर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित सेठ का पुत्र था, इसलिए उसकी बदहाली का सब उपहास करने लगे। इधर भूखों मरने की नौबत, उधर शर्म से मुँह छुपाने की जगह नही। उसका जीना दूभर हो गया। अपने नगर में मजदूर की हैसियत से गुज़ारा करना उसे असंभव लगा तो वहाँ से दूर चला आया। मेहनत-मजदूरी करके अब अपना पेट भरता है तथा अपने भविष्य के लिए भी कुछ करने की सोचता है। धन जब उसके पास प्रचुर मात्रा में था तो मन की चंचलता पर वह अंकुश नहीं लगा सका। धन बरबाद हो जाने पर उसे सद्बुद्धि आई और ठोकरें खाने के बाद अपनी भूल का एहसास हुआ। जब राजा ने पूछा क्या वह धन आने पर फिर से मन का कहा करेगा तो उसने कहा कि ज़माने की ठोकरों ने उसे सच्चा ज्ञान दे दिया है और अब उस ज्ञान के बल पर वह अपने मन को वश में रख सकता है। विक्रम ने तब जाकर उसे अपना असली परिचय दिया तथा उसे कई स्वर्ण मुद्राएँ देकर होशियारी से व्यापार करने की सलाह दी। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि लग्न शीलता उसे फिर पहले वाली समृद्धि वापस दिला देगी। उससे विदा लेकर वे अपने महल लौट आए क्योंकि अब उनके पास उन तपस्विओं के विवाद का समाधान था। कुछ समय बाद उनके दरबार में वे दोनों तपस्वी समाधान की इच्छा लिए हाज़िर हुए। विक्रम ने उन्हें कहा कि मनुष्य के शरीर पर उसका मन बार-बार नियंत्रण करने की चेष्टा करता है पर ज्ञान के बल पर विवेकशील मनुष्य मन को अपने पर हावी नहीं होने देता है। मन और ज्ञान में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है तथा दोनों का अपना-अपना महत्व है। जो पूरी तरह अपने मन के वश में हो जाता है उसका सर्वनाश अवश्यम्भावी है। मन अगर रथ है तो ज्ञान सारथि। बिना सारथि रथ अधूरा है। उन्होंने सेठ पुत्र के साथ जो कुछ घटा था उन्हें विस्तारपूर्वक बताया तो उनके मन में कोई संशय नहीं रहा। उन तपस्वियों ने उन्हें एक चमत्कारी खड़िया दिया जिससे बनाई गई तस्वीरें रात में सजीव हो सकती थीं और उनका वार्त्तालाप भी सुना जा सकता था। विक्रम ने कुछ तस्वीरें बनाकर खड़िया की सत्यता जानने की कोशिश की तो सचमुच खड़िया में वह गुण था। अब राजा तस्वीरे बना-बना कर अपना मन बहलाने लगे। अपनी रानियों की उन्हें बिल्कुल सुधि नहीं रही। जब रानियाँ कई दिनों के बाद उनके पास आईं तो राजा को खड़िया ने चित्र बनाते हुए देखआ। रानियों ने आकर उनका ध्यान बँटाया तो राजा को हँसी आ गई और उन्होंने कहा वे भी मन के आधीन हो गए थे। अब उन्हें अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो चुका है।…
तारावती अठारहवीं पुतली तारामती की कथा इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य की गुणग्राहिता का कोई जवाब नहीं था। वे विद्वानों तथा कलाकारों को बहुत सम्मान देते थे। उनके दरबार में एक से बढ़कर एक विद्वान तथा कलाकार मौजूद थे, फिर भी अन्य राज्यों से भी योग्य व्यक्ति आकर उनसे अपनी योग्यता के अनुरुप आदर और पारितोषिक प्राप्त करते थे। एक दिन विक्रम के दरबार में दक्षिण भारत के किसी राज्य से एक विद्वान आशय था कि विश्वासघात विश्व का सबसे नीच कर्म है। उसने राजा को अपना विचार स्पष्ट करने के लिए एक कथा सुनाई। उसने कहा- आर्याव में बहुत समय पहले एक राजा था। उसका भरा-पूरा परिवार था, फिर भी सत्तर वर्ष की आयु में उसने एक रुपवती कन्या से विवाह किया। वह नई रानी के रुप पर इतना मोहित हो गया कि उससे एक पल भी अलग होने का उसका मन नहीं करता था। वह चाहता था कि हर वDत उसका चेहरा उसके सामने रहे। वह नई रानी को दरबार में भी अपने बगल में बिठाने लगा। उसके सामने कोई भी कुछ बोलने का साहस नहीं करता, मगर उसके पीठ पीछे सब उसका उपहास करते। राजा के महामन्त्री को यह बात बुरी लगी। उसने एकांत में राजा से कहा कि सब उसकी इस की आलोचना करते हैं। अगर वह हर पल नई रानी का चेहरा देखता रहना चाहता है तो उसकी अच्छी-सी तस्वीर बनवाकर राजसिंहासन के सामने रखवा दे। चूँकि इस राज्य में राजा के अकेले बैठने की परम्परा रही है, इसलिए उसका रानी को दरबार में अपने साथ लाना अशोभनीय है। महामन्त्री राजा का युवाकाल से ही मित्र जैसा था और राजा उसकी हर बात को गंभीरतापूर्वक लेता था। उसने महामन्त्री से किसी अच्छे चित्रकार को छोटी रानी के चित्र को बनाने का काम सौंपने को कही। महामन्त्री ने एक बड़े ही योग्य चित्रकार को बुलाया। चित्रकार ने रानी का चित्र बनाना शुरु कर दिया। जब चित्र बनकर राजदरबार आया, तो हर कोई चित्रकार का प्रशंसक हो गया। बारीक से बारीक चीज़ को भी चित्रकार ने उस चित्र में उतार दिया था। चित्र ऐसा जीवंत था मानो छोटी रानी किसी भी क्षण बोल पड़ेगी। राजा को भी चित्र बहुत पसंद आया। तभी उसकी नज़र चित्रकार द्वारा बनाई गई रानी की जंघा पर गई, जिस पर चित्रकार ने बड़ी सफ़ाई से एक तिल दिखा दिया था। राजा को शंका हुई कि रानी के गुप्त अंग भी चित्रकार ने देखे हैं और क्रोधित होकर उसने चित्रकार से सच्चाई बताने को कहा। चित्रकार ने पूरी शालीनता से उसे विश्वास दिलाने की कोशिश की कि प्रकृति ने उसे सूक्ष्म दृष्टि दी है जिससे उसे छिपी हुई बात भी पता चल जाती है। तिल उसी का एक प्रमाण है और उसने तिल को खूबसूरती बढाने के लिए दिखाने की कोशिश की है। राजा को उसकी बात का ज़रा भी विश्वास नहीं हुआ। उसने जल्लादों को बुलाकर तत्काल घने जंगल में जाकर उसकी गर्दन उड़ा देने का हुक्म दिया तथा कहा कि उसकी आँखें निकालकर दरबार में उसके सामने पेश करें। महामन्त्री को पता था कि चित्रकार की बातें सच हैं। उसने रास्ते में उन जल्लादों को धन का लोभ देकर चित्रकार को मुक्त करवा लिया तथा उन्हें किसी हिरण को मारकर उसकी आँखे निकाल लेने को कहा ताकि राजा के विश्वास हो जाए कि कलाकार को खत्म कर दिया गया है। चित्रकार को लेकर महामन्त्री अपने भवन ले आया तथा चित्रकार वेश बदलकर उसी के साथ रहने लगा। कुछ दिनों बाद राजा का पुत्र शिकार खेलने गया, तो एक शेर उसके पीछे पड़ गया। राजकुमार जान बचाने के लिए एक पेड़ पर चढ़ गया। तभी उसकी नज़र पेड़ पर पहले से मौजूद एक भालू पर पड़ी। भालू से जब वह भयभीत हुआ तो भालू ने उससे निश्चिन्त रहने को कहा। भालू ने कहा कि वह भी उसी की तरह शेर से डरकर पेड़ पर चढ़ा हुआ है और शेर के जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। शेर भूखा था और उन दोनों पर आँख जमाकर उस पेड़ के नीचे बैठा था। राजकुमार को बैठे-बैठे नींद आने लगी और जगे रहना उसे मुश्किल दिख पड़ा। भालू ने अपनी ओर उसे बुला दिया एक घनी शाखा पर कुछ देर सो लेने को कहा। भालू ने कहा कि जब वह सोकर उठ जाएगा तो वह जागकर रखवाली करेगा और भालू सोएगा जब राजकुमार सो गया तो शेर ने भालू को फुसलाने की कोशिश की। उसने कहा कि वह और भालू वन्य प्राणी हैं, इसलिए दोनों को एक दूसरे का भला सोचना चाहिए। मनुष्य कभी भी वन्य प्राणियों का दोस्त नहीं हो सकता। उसने भालू से राजकुमार को गिरा देने को कहा जिससे कि वह उसे अपना ग्रास बना सके। मगर भालू ने उसकी बात नहीं मानी तथा कहा कि वह विश्वासघात नहीं कर सकता। शेर मन मसोसकर रह गया। चार घंटों की नींद पूरी करने के बाद जब राजकुमार जागा, तो भालू की बारी आई और वह सो गया। शेर ने अब राजकुमार को फुसलाने की कोशिश की। उसने कहा कि क्यों वह भालू के लिए दुख भोग रहा है। वह अगर भालू को गिरा देता हो तो शेर की भूख मिट जाएगी और वह आराम से राजमहल लौट जाएगा। राजकुमार उसकी बातों में आ गया। उसने धक्का देकर भालू को गिराने की कोशिश की। मगर भालू न जाने कैसे जाग गया और राजकुमार को विश्वासघाती कहकर खूब धिक्कारा। राजकुमार की अन्तरात्मा ने उसे इतना कोसा कि वह गूंगा हो गया। जब शेर भूख के मारे जंगल में अन्य शिकार की खोज में निकल गया तो वह राजमहल पहुँचा। किसी को भी उसके गूंगा होने की बात समझ में नहीं आई। कई बड़े वैद्य आए, मगर राजकुमार का रोग किसी की समझ में नहीं आया। आखिरकार महामन्त्री के घर छिपा हुआ वह कलाकार वैद्य का रुप धरकर राजकुमार के पास आया। उसने गूंगे राजकुमार के चेहरे का भाव पढ़कर सब कुछ जान लिया। उसने राजकुमार को संकेत की भाषा में पूछ कि क्या आत्मग्लानि से पीड़ित होकर वह अपनी वाणी खो चुका है, तो राजकुमार फूट-फूट कर रो पड़ा। रोने से उस पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ा और उसकी खोई वाणी लौट आई। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसने राजकुमार के चेहरे को देखकर सच्चाई कैसे जान ली तो चित्रकार ने जवाब दिया कि जिस तरह कलाकार ने उनकी रानी की जाँघ का तिल देख लिया था। राजा तुरन्त समझ गया कि वह वही कलाकार था जिसके वध की उसने आज्ञा दी थी। वह चित्रकार से अपनी भूल की माफी माँगने लगा तथा ढेर सारे इनाम देकर उसे सम्मानित किया। उस दक्षिण के विद्वान की कथा से विक्रमादित्य बहुत प्रसन्न हुए तथा उसके पाण्डित्य का सम्मान करते हुए उन्होंने उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी।…
विद्यावती विद्यावती नामक सत्रहवीं पुतली ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- महाराजा विक्रमादित्य की प्रजा को कोई कमी नहीं थीं। सभी लोग संतुष्ट तथा प्रसन्न रहते थे। कभी कोई समस्या लेकर यदि कोई दरबार आता था उसकी समस्या को तत्काल हल कर दिया जाता था। प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट देने वाले अधिकारी को दण्डित किया जाता था। इसलिए कहीं से भी किसी तरह की शिकायत नहीं सुनने को मिलती थी। राजा खुद भी वेश बदलकर समय-समय पर राज्य की स्थिति के बारे में जानने को निकलते थे। ऐसे ही एक रात जब वे वेश बदलकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें एक झोंपड़े से एक बातचीत का अंश सुनाई पड़ा। कोई औरत अपने पति को राजा से साफ़-साफ़ कुछ बताने को कह रही थी और उसका पति उसे कह रहा था कि अपने स्वार्थ के लिए अपने महान राजा के प्राण वह संकट में नहीं डाल सकता है। विक्रम समझ गए कि उनकी समस्या से उनका कुछ सम्बन्ध है। उनसे रहा नहीं गाया। अपनी प्रजा की हर समस्या को हल करना वे अपना कर्त्तव्य समझते थे। उन्होंने द्वार खटखटाया, तो एक ब्राह्मण दम्पत्ति ने दरवाजा खोला। विक्रम ने अपना परिचय देकर उनसे उनकी समस्या के बारे में पूछा तो वे थर-थर काँपने लगे। जब उन्होंने निर्भय होकर उन्हें सब कुछ स्पष्ट बताने को कहा तो ब्राह्मण ने उन्हें सारी बात बता दी। ब्राह्मण दम्पत्ति विवाह के बारह साल बाद भी निस्संतान थे। इन बारह सालों में संतान के लिए उन्होंने काफ़ी यत्न किए। व्रत-उपवास, धर्म-कर्म, पूजा-पाठ हर तरह की चेष्टा की पर कोई फायदा नहीं हुआ। ब्राह्मणी ने एक सपना देखा है। स्वप्न में एक देवी ने आकर उसे बताया कि तीस कोस की दूरी पर पूर्व दिशा में एक घना जंगल है जहाँ कुछ साधु सन्यासी शिव की स्तुति कर रहे हैं। शिव को प्रसन्न करने के लिए हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर डाल रहे हैं। अगर उन्हीं की तरह राजा विक्रमादित्य उस हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर फेंकें, तो शिव प्रसन्न होकर उनसे उनकी इच्छित चीज़ माँगने को कहेंगे। वे शिव से ब्राह्मण दम्पत्ति के लिए संतान की माँग कर सकते हैं और उन्हें सन्तान प्राप्ति हो जाएगी। विक्रम ने यह सुनकर उन्हें आश्वासन दिया कि वे यह कार्य अवश्य करेंगे। रास्त में उन्होंने बेतालों को स्मरण कर बुलाया तथा उस हवन स्थल तक पहुँचा देने को कहा। उस स्थान पर सचमुच साधु-सन्यासी हवन कर रहे थे तथा अपने अंगों को काटकर अग्नि-कुण्ड में फेंक रहे थे। विक्रम भी एक तरफ बैठ गए और उन्हीं की तरह अपने अंग काटकर अग्नि को अर्पित करने लगे। जब विक्रम सहित वे सारे जलकर राख हो गए तो एक शिवगण वहाँ पहुँचा तथा उसने सारे तपस्विओं को अमृत डालकर ज़िन्दा कर दिया, मगर भूल से विक्रम को छोड़ दिया। सारे तपस्वी ज़िन्दा हुए तो उन्होंने राख हुए विक्रम को देखा। सभी तपस्विओं ने मिलकर शिव की स्तुति की तथा उनसे विक्रम को जीवित करने की प्रार्थना करने लगे। भगवान शिव ने तपस्विओं की प्रार्थना सुन ली तथा अमृत डालकर विक्रम को जीवित कर दिया । विक्रम ने जीवित होते ही शिव के सामने नतमस्तक होकर ब्राह्मण दम्पत्ति को संतान सुख देने के लिए प्रार्थना की। शिव उनकी परोपकार तथा त्याग की भावना से काफ़ी प्रसन्न हुए तथा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। कुछ दिनों बाद सचमुच ब्राह्मण दम्पत्ति को पुत्र लाभ हुआ।…
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