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Isliye To Tum Pahad Ho | Rajesh Joshi

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इसीलिए तो तुम पहाड़ हो | राजेश जोशी

शिवालिक की पहाड़ियों पर चढ़ते हुए हाँफ जाता हूँ

साँस के सन्तुलित होने तक पौड़ियों पर कई-कई बार रुकता हूँ

आने को तो मैं भी आया हूँ यहाँ एक पहाड़ी गाँव से

विंध्याचल की पहाड़ियों से घिरा है जो चारों ओर से

मेरा बचपन भी गुज़रा है पहाड़ियों को धाँगते

अवान्तर दिशाओं की पसलियों को टटोलते और

पहाड़ी के छोर से उगती यज्ञ-अश्व की खोपड़ी

जैसी उषाएँ देखते हुए

सब कहते हैं विंध्याचल एक झुका हुआ पहाड़ है

अगस्त्य को दक्षिण का रास्ता देने के लिए वो झुक गया था

और सदियों से उनके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है

मैंने कितनी बार विंध्याचल के कान में जाकर फुसफसाकर कहा

चिल्ला-चिल्लाकर, गला फाड़कर कहा

कि ऋषियों की बातों पर भरोसा करना बन्द कर

ऋषि अपने स्वयं के झूठ से नहीं डरते

वो सिर्फ़ दूसरों को झूठ से डरना सिखाते हैं।

पौड़ियाँ चढ़ते हाँफ जाता हूँ

पर शिवालिक की चढ़ाइयाँ हैं

कि कहीं ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेतीं

मेरी हिम्मत जहाँ जवाब दे जाती है

वहाँ से ही कोई अगली चढ़ाई शुरू हो जाती है

साथ चलता दोस्त कहता है कि अगस्त्य यहीं आए थे

और इन पहाड़ों से वापस कभी नहीं लौटे

मैं कहता हूँ मुझे कोई मतलब नहीं कि अगस्त्य दक्षिण गए थे

या आए थे शिवालिक की पहाड़ियों में

मैं कोई ऋषि नहीं, एक साधारण-सा कवि हूँ

जो दिन-रात की जद्दोजहद के गीत लिखता है

मैं वापस लौटकर जाऊँगा

लौटकर जाऊँगा ज़रूर

और एक बार फिर विंध्याचल को बताने की कोशिश करूँगा

कि अगस्त्य के लौटने की प्रतीक्षा फ़िज़ूल है

तुम अब अपनी कमर सीधी कर लो

और अपने पूरे क़द के साथ खड़े हो जाओ तनकर

मैं तब भी तुम्हारे मज़बूत कंधों पर बैठकर

दूर तक फैले जीवन के रंग-बिरंगे मेले देखूँगा

हिमालय से ज़्यादा है तुम्हारी आयु जानता हूँ

और ज़्यादा मज़बूत हैं तुम्हारे कंधे

ज्वालामुखी के बहते हुए लावे के अचानक

रुककर ठहर जाने की छवियाँ हैं तुम्हारी चट्टानों में

तुम्हारी गुफाओं में सुरक्षित हैं हमारे पूर्वजों की उकेरी हुई

शिकार खेलने और आग जलाने की छवियाँ

मुझे तुम हमेशा अच्छे लगते हो

मेरी आत्मा की चील ने तो बना लिया है

तुम्हारी चट्टान पर अपना स्थायी घोंसला

तुम्हीं ने सिखाया है मुझे कि झुक जाना

छोटा हो जाना नहीं है

जानता हूँ किसी ज़रूरतमन्द को रास्ता देने को

तुम झुक गए

इसीलिए तो तुम पहाड़ हो!

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शिवालिक की पहाड़ियों पर चढ़ते हुए हाँफ जाता हूँ

साँस के सन्तुलित होने तक पौड़ियों पर कई-कई बार रुकता हूँ

आने को तो मैं भी आया हूँ यहाँ एक पहाड़ी गाँव से

विंध्याचल की पहाड़ियों से घिरा है जो चारों ओर से

मेरा बचपन भी गुज़रा है पहाड़ियों को धाँगते

अवान्तर दिशाओं की पसलियों को टटोलते और

पहाड़ी के छोर से उगती यज्ञ-अश्व की खोपड़ी

जैसी उषाएँ देखते हुए

सब कहते हैं विंध्याचल एक झुका हुआ पहाड़ है

अगस्त्य को दक्षिण का रास्ता देने के लिए वो झुक गया था

और सदियों से उनके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है

मैंने कितनी बार विंध्याचल के कान में जाकर फुसफसाकर कहा

चिल्ला-चिल्लाकर, गला फाड़कर कहा

कि ऋषियों की बातों पर भरोसा करना बन्द कर

ऋषि अपने स्वयं के झूठ से नहीं डरते

वो सिर्फ़ दूसरों को झूठ से डरना सिखाते हैं।

पौड़ियाँ चढ़ते हाँफ जाता हूँ

पर शिवालिक की चढ़ाइयाँ हैं

कि कहीं ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेतीं

मेरी हिम्मत जहाँ जवाब दे जाती है

वहाँ से ही कोई अगली चढ़ाई शुरू हो जाती है

साथ चलता दोस्त कहता है कि अगस्त्य यहीं आए थे

और इन पहाड़ों से वापस कभी नहीं लौटे

मैं कहता हूँ मुझे कोई मतलब नहीं कि अगस्त्य दक्षिण गए थे

या आए थे शिवालिक की पहाड़ियों में

मैं कोई ऋषि नहीं, एक साधारण-सा कवि हूँ

जो दिन-रात की जद्दोजहद के गीत लिखता है

मैं वापस लौटकर जाऊँगा

लौटकर जाऊँगा ज़रूर

और एक बार फिर विंध्याचल को बताने की कोशिश करूँगा

कि अगस्त्य के लौटने की प्रतीक्षा फ़िज़ूल है

तुम अब अपनी कमर सीधी कर लो

और अपने पूरे क़द के साथ खड़े हो जाओ तनकर

मैं तब भी तुम्हारे मज़बूत कंधों पर बैठकर

दूर तक फैले जीवन के रंग-बिरंगे मेले देखूँगा

हिमालय से ज़्यादा है तुम्हारी आयु जानता हूँ

और ज़्यादा मज़बूत हैं तुम्हारे कंधे

ज्वालामुखी के बहते हुए लावे के अचानक

रुककर ठहर जाने की छवियाँ हैं तुम्हारी चट्टानों में

तुम्हारी गुफाओं में सुरक्षित हैं हमारे पूर्वजों की उकेरी हुई

शिकार खेलने और आग जलाने की छवियाँ

मुझे तुम हमेशा अच्छे लगते हो

मेरी आत्मा की चील ने तो बना लिया है

तुम्हारी चट्टान पर अपना स्थायी घोंसला

तुम्हीं ने सिखाया है मुझे कि झुक जाना

छोटा हो जाना नहीं है

जानता हूँ किसी ज़रूरतमन्द को रास्ता देने को

तुम झुक गए

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