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देवालय में बैठा बैठा मैं मन में करता ध्यान।
शुभ दिन आया मैं करूँ दीप कौन सा दान।
मिटटी के दीपक क्षणभंगुर और छोटी सी ज्योति।
बड़ी क्षीण सी रौशनी बस पल दो पल की होती।
मन में इच्छा बड़ी प्रबल दुर्लभ हो मेरा दान।
सारे व्यक्ति देख करें बस मेरा ही गुण गान।
इस नगर में हर व्यक्ति के मुख पर हो मेरा नाम।
इसी सोच में डूबा बैठा आखिर क्या करूँ मैं काम।
सोचा चाँदी की चौकी पर सोने का एक दीप सजाऊँ।
साथ में माणिक मोती माला प्रतिमा पर चढ़वाऊँ।
दीपदान के उत्सव पर क्यों ना छप्पन भोग लगाऊँ।
बाँट प्रसाद निर्धन लोगों में मन ही मन इतराऊँ।
इसी विचार में डूबा था बस बैठे बैठे आँख लगी।
एक प्रकाश सा हुआ अचानक जैसे कोई जोत जगी।
मेरे मन-मानस मंदिर में गूँज उठा एक दिव्य नाद।
सुन अलौकिक ध्वनि को मिटने लगे मेरे सभी विषाद।
स्वर्णदीप का क्या करे वो जिसने स्वर्ण-लंका ठुकराई।
चाँदी-चौकी पर वो क्या बैठे जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि समाई।
विश्वनाथ की क्षुधा न मांगे छप्पन भोग से सज्जित थाल।
श्रद्धा प्रेम से जो भी अर्पण भेंट वही सुन्दर विशाल।
चक्षु मेरे भी खुल गए सुन सुन्दर सार्थक सु-उपदेश।
ज्यूँ तिमिर में डूबे नभ में हो सूर्य का औचक प्रवेश।
अब सोच रहा मैं क्या दूँ ऐसा जो सबका उद्धार हो।
मेरा मन भी जो शुद्ध बने शेष न कोई विकार हो।
बहुत सोच निष्कर्ष निकाला आज दीप मैं दूँगा पाँच।
जो आज तक रखे जलाये देकर मन की घृत और आँच।
पञ्च-दीप ये अब तक मेरे मन मानस में जलते आये।
मार्गद्रष्टा बन कर मुझको निज जीवन का पथ दिखलाये।
प्रथम दीप है लोभ का जो मेरे मन में जलता है।
चाहे जितना मैं पा जाऊँ मुझको कम ही लगता है।
स्वीकार करो प्रभु प्रथम दीप मुझको अपना सेवक मान।
अब से जो भी प्राप्त करूँगा मानूँगा तेरा वरदान।
क्रोध जगत में ऐसी ज्वाला जो अपनों को अधिक जलाती है।
सबका जीवन करती दुष्कर स्वयं को भी बहुत सताती है।
क्रोध दीप है अगला जिसको आज मैं अर्पण करता हूँ।
शांत चित्त हो यही कामना मैं तुझे समर्पण करता हूँ।
अपने सुख की छोड़ कामना दूजे के सुख से जलता हूँ।
औरों का वैभव देख देख क्यों मैं दुःख में गलता हूँ।
ईर्ष्या जिस भी हृदय में रहती चैन कभी न आता है।
स्वीकार करो ये दीप तीसरा इससे न मेरा अब नाता है।
मेधा ज्ञान शक्ति वैभव आप ही हैं इस सबके दाता।
हर प्राणी इस जग में सब कुछ प्रभु आप ही से पाता।
मैं अज्ञानी अहंकार में स्वयं को समझा इनका कारण।
सौंप आज ये चौथा दीपक मैं करता निज गर्व-निवारण।
मात पिता पत्नी संतानें सम्बन्ध हमारे कितने होते।
विरह-विषाद में जीवन कटता जब हम किसी को खोते।
सबसे कठिन है तजना इसको प्रभु मुझे चाहिए शक्ति।
तज कर आज ये मोह का दीपक मैं माँगू तेरी भक्ति।
पाँच दीप मैं अर्पण करता तेरे चरणों का करके ध्यान।
कृपा करो मुझ पर तुम इतनी स्वीकार करो ये दीपदान।
अब जीवन को राह दिखलायें संतोष श्रद्धा भक्ति ज्ञान।
नव दीपक आलोकित हों मन में ऐसा मुझको दो वरदान।
स्वरचित
विवेक अग्रवाल 'अवि'
96 حلقات
देवालय में बैठा बैठा मैं मन में करता ध्यान।
शुभ दिन आया मैं करूँ दीप कौन सा दान।
मिटटी के दीपक क्षणभंगुर और छोटी सी ज्योति।
बड़ी क्षीण सी रौशनी बस पल दो पल की होती।
मन में इच्छा बड़ी प्रबल दुर्लभ हो मेरा दान।
सारे व्यक्ति देख करें बस मेरा ही गुण गान।
इस नगर में हर व्यक्ति के मुख पर हो मेरा नाम।
इसी सोच में डूबा बैठा आखिर क्या करूँ मैं काम।
सोचा चाँदी की चौकी पर सोने का एक दीप सजाऊँ।
साथ में माणिक मोती माला प्रतिमा पर चढ़वाऊँ।
दीपदान के उत्सव पर क्यों ना छप्पन भोग लगाऊँ।
बाँट प्रसाद निर्धन लोगों में मन ही मन इतराऊँ।
इसी विचार में डूबा था बस बैठे बैठे आँख लगी।
एक प्रकाश सा हुआ अचानक जैसे कोई जोत जगी।
मेरे मन-मानस मंदिर में गूँज उठा एक दिव्य नाद।
सुन अलौकिक ध्वनि को मिटने लगे मेरे सभी विषाद।
स्वर्णदीप का क्या करे वो जिसने स्वर्ण-लंका ठुकराई।
चाँदी-चौकी पर वो क्या बैठे जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि समाई।
विश्वनाथ की क्षुधा न मांगे छप्पन भोग से सज्जित थाल।
श्रद्धा प्रेम से जो भी अर्पण भेंट वही सुन्दर विशाल।
चक्षु मेरे भी खुल गए सुन सुन्दर सार्थक सु-उपदेश।
ज्यूँ तिमिर में डूबे नभ में हो सूर्य का औचक प्रवेश।
अब सोच रहा मैं क्या दूँ ऐसा जो सबका उद्धार हो।
मेरा मन भी जो शुद्ध बने शेष न कोई विकार हो।
बहुत सोच निष्कर्ष निकाला आज दीप मैं दूँगा पाँच।
जो आज तक रखे जलाये देकर मन की घृत और आँच।
पञ्च-दीप ये अब तक मेरे मन मानस में जलते आये।
मार्गद्रष्टा बन कर मुझको निज जीवन का पथ दिखलाये।
प्रथम दीप है लोभ का जो मेरे मन में जलता है।
चाहे जितना मैं पा जाऊँ मुझको कम ही लगता है।
स्वीकार करो प्रभु प्रथम दीप मुझको अपना सेवक मान।
अब से जो भी प्राप्त करूँगा मानूँगा तेरा वरदान।
क्रोध जगत में ऐसी ज्वाला जो अपनों को अधिक जलाती है।
सबका जीवन करती दुष्कर स्वयं को भी बहुत सताती है।
क्रोध दीप है अगला जिसको आज मैं अर्पण करता हूँ।
शांत चित्त हो यही कामना मैं तुझे समर्पण करता हूँ।
अपने सुख की छोड़ कामना दूजे के सुख से जलता हूँ।
औरों का वैभव देख देख क्यों मैं दुःख में गलता हूँ।
ईर्ष्या जिस भी हृदय में रहती चैन कभी न आता है।
स्वीकार करो ये दीप तीसरा इससे न मेरा अब नाता है।
मेधा ज्ञान शक्ति वैभव आप ही हैं इस सबके दाता।
हर प्राणी इस जग में सब कुछ प्रभु आप ही से पाता।
मैं अज्ञानी अहंकार में स्वयं को समझा इनका कारण।
सौंप आज ये चौथा दीपक मैं करता निज गर्व-निवारण।
मात पिता पत्नी संतानें सम्बन्ध हमारे कितने होते।
विरह-विषाद में जीवन कटता जब हम किसी को खोते।
सबसे कठिन है तजना इसको प्रभु मुझे चाहिए शक्ति।
तज कर आज ये मोह का दीपक मैं माँगू तेरी भक्ति।
पाँच दीप मैं अर्पण करता तेरे चरणों का करके ध्यान।
कृपा करो मुझ पर तुम इतनी स्वीकार करो ये दीपदान।
अब जीवन को राह दिखलायें संतोष श्रद्धा भक्ति ज्ञान।
नव दीपक आलोकित हों मन में ऐसा मुझको दो वरदान।
स्वरचित
विवेक अग्रवाल 'अवि'
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